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रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

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रिश्ता नहीं किसी का किसी फ़र्द से मगर.
हम-मज़हबों के साथ हैं हमदर्द से मगर.

जब आई घर पे बात तो लब बंद हो गए,
पहले बहोत थे गर्म, हैं अब सर्द से मगर.

दहशत-गरी की गर्द न चेहरे पे आ पड़े,
परहेज़ भी, लगाव भी है गर्द से मगर.

आजाद थे तो करते थे मर्दानगी की बात,
पकड़े गए तो हो गए नामर्द से मगर.

आंधी चमन में आई तो सब बेखबर रहे,
कुछ सुर्ख फूल हो गए क्यों ज़र्द से मगर.