रिश्ता / गोरख प्रसाद मस्ताना
एक ने पाटा दूजे ने काटा
रिश्तों के चेहरे पर एक धब्बा
लालसा पल भर में छू लेने को आसमान
क्षण भर में होने को स्वर्णिम विहान
पर नासमझ मन क्या तूने नहीं जाना
धरती बहुत से आसमानों को
निगल चुकी है
पिघल जाती है जवालामुखी भी
लावा की तरह
जब अंहकार की हुंकार सुनती है
थर्रा देती है भूकंप बनकर
उन सूरमाओं को जो समझते हैं स्वयं को
आग नाग
उन्हें भी बिल खोजने पर कर देती है
मजबूर तोड़ देती है गरूर
फिर रिश्तों पर नागफनी का वार क्यों
रावणी ललकार क्यों?
अब भी समझना है समझने के लिये
रिश्तों को पवित्रता
मत वन प्रदुषण की सुरसा
मत निगल पीपल की छावं को
हरियाये गाँव को
दूबों की पाँव को
वरना कोई जन बनकर हनुमान
कर्ण भेद देगा मस्तक छेद देगा
समझा देगा रिश्तों को
धरती का उसमे बेटों से