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रिश्ता : फूल और ख़ुशबू का / प्रभा दीक्षित
Kavita Kosh से
तुमने मुझे दिया है
एक ऎसा परिवेश
जिसमें सम्भव नहं दिखती है
मेरी मुक्ति।
अधूरे हैं और अधूरे ही रहेंगे
तुम्हारी प्रगतिशीलता के दावे
छोड़ नहीं सकते
तुम अपनी स्वच्छंद सुविधाएँ
फिर क्यों नहीं सहन कर पाते हो विकास
हमारी स्वाधीन चेतना का ।
हमारी असुविधाओं और कष्टों में
तुम शरीक होते हो
एक शासक की तरह
तात्कालिक सहानुभूति के साथ
पर सच कहना
अपनी पूरी चेतना से
क्या तुम सहन कर सकोगे
अपनी मरज़ी के ख़िलाफ़
मेरा ज़ोर से हँसना
फूल का खिलना... मुस्कुराना
तुम कब जानोगे
फूल और ख़ुशबू के रिश्ते के समान ही
गुँथें हैं हमारी ख़ुशियों के सूत्र
आपस में
जिसे तुम्हारा पुरुष
तोड़ता रहा है सदियों से
जाने-अनजाने।