रिश्ते तमाम तोड़ कर अपनी ज़मीन से / प्रेम भारद्वाज
रिश्ते तमाम तोड़ कर अपनी ज़मीन से
अपने निशाँ तलाशियेगा खुर्दबीन से
सर पर हवा के तो नहीँ है बीज का वजूद
बरगद हुआ तभी जो मिला है ज़मीन से
देते रहेंगे उनको सदा मख़मली सुकून
हैं देखने पहाड़ जिन्हें दूरबीन से
रन्दों की रेगमार की थी फिर मजाल क्या
कटते न देवदार जो आरा—मशीन से
अख़्लाक़ के हिमायती बन्दे उसूल के
खुल खेलते रहे किसी पर्दानशीन से
रक्खा था मैनें जिसको कभी दिल में पालकर
निकला है साँप बन के मेरी आस्तीन से
इक शे'र पर भी दाद न दी बे लिहाज़ ने
गो हमने खूब शे'र कहे बेहतरीन से
इक दूसरे की टाँग जो खींची गई यहाँ
होने न पाए आप तभी चार तीन से
वो लड़खड़ाहटें नहीं अपनी ज़बान में
हम जो कहेंगे बात कहेंगे यक़ीन से
इन्सानियत बटोरती दहशत रही यहाँ
रूहानियत, रिवायतों, ईमान—ओ—दीन से
देगी नजात देखना यह प्रेम की मिठास
कड़वाहटों भरी फ़ज़ा ताज़ातरीन से.