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रिश्तों की आँच / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
बुझ जाती है
दिए की लौ
अलाव की आग
फिर भी
जिन्दा रहती है
कहीं न कहीं
रिश्तों की आँच
मद्धिम ही सही ।
सूख जाती है
बरसाती नदी
अलसाया-सा
चट्टानों से निकला
पतला सा– सोता जल का
कहीं न कहीं ,फिर भी
रह जाता है पानी
कुछ पानीदार लोगों की
चमकती आँखों में।
लू के थपेड़ों में
सूख जाते हैं
हरे भरे उपवन
सिर उठाती कलियाँ
बच जाती है
फिर भी
थोडी़ बहुत खुशबू
कुछ लोगों की साँसों में
दिल से अँखुआई
बातों में ।
इसी तरह
ज़िन्दा रहते हैं फिर भी
आँच और पानी
जीवन की खुशबू ।