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रिश्तों की मधुशाला / रजनी मोरवाल
Kavita Kosh से
कैसे मन का दीप जलाऊँ
ख़ुशियाँ पर जाले हैं,
रिश्तों के द्वारे पर कब से
पड़े हुए ताले हैं
सोने के पिंजरे में पालूँ
मोती रोज चुगाऊँ,
साँसों की वीणा में गाकर
प्यारा गीत सुनाऊँ
रिश्तों के पंछी ने आखिर
डेरे कब डाले हैं
कितना चाहूँ और सहेजूँ
सपनों से नाजुक हैं,
जन्मों की चाहत से परखूँ
आँसू से भावुक हैं
रिश्तों के मधुशाला में तो
दृग- जल के प्याले हैं
पर्वत-सी ऊँचाई इनमें
नदियों से आकुलता,
झीलों-सी गहराई इनमें
सागर-सी व्याकुलता
रिश्तों की पीड़ाओं के पग
छाले ही छाले हैं