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रिश्तों की राह चल के मिले अश्क बार बार / प्रेमचंद सहजवाला

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रिश्तों की राह चल के मिले अश्क बार बार
तनहाइयों ने बांहों में ले कर लिया उबार
 
चलती है दिल पे कैसी तो इक तेज़ सी कटार
डोली उठा के जाते हैं जब भी कोई कहार

दिन भर चले तो रात को आ कर के सो गए
फिर नींद की पनाहों में सपने सजे हज़ार

कितनी कशिश भरी है ये अनजान सी डगर
मिलता है हर दरख़्त के साए से तेरा प्यार

मौसम बदल बदल के ही आते हैं बाग में
आई है अब खिजां को बताने यही बहार

वादों पे जीते जीते हुई उम्र अब तमाम
अब कौन कर सकेगा हसीनों का एतबार

साकी की दीद करने को हम भी चले गए
रिन्दों की मैकदे में लगी जिस घड़ी कतार

साधू भी रंग गए हैं सियासत के रंग में
वादों से मोक्ष होगा ओ तक़रीर की जुनार

दिल को लगाने वाले मनाज़िर चले गए *
अब तो फकत बचे हैं ये उजड़े हुए दयार

नासेह दे गए हैं दीवानों को ये सबक
अब कोई चारासाज़ है कोई न गमगुसार **

(* ज़फर के प्रति श्रद्धांजलि सहित ** ग़ालिब के प्रति श्रद्धांजलि सहित)