रिश्तों के घनीभूत जंगल / सुदर्शन रत्नाकर
दस बीस पेड़ जंगल नहीं होते
जंगल होते हैं गहरे घने,
आसमान को छूते पेड़ होते हैं,
कँटीली झाड़ियाँ और
नोकदार पत्तियाँ होती हैं
छाया देते हैं पेड़,
लताओं का आधार होते हैं पेड़।
हिंसक पशुओं का घर होते हैं जंगल
मासूम पशुओं की पनाह घर होते हैं जंगल।
डराते हैं ये जंगल
रास्ता रोकते हैं ये जंगल।
पर बड़े सुंदर भी होते हैं ये जंगल,
नदियाँ, झरने भी बहते हैं यहाँ,
आदिवासी भी रहते हैं वहाँ।
एक अलग ही दुनिया बसती है यहाँ
तम है, पर चाँद-तारों की चाँदनी भी
बरसती है,
प्रकृति का उपहार होते हैं ये घने जंगल,
जड़ी बूटियों का भंडार होते हैं ये जंगल,
वर्षा का आधार होते हैं ये जंगल।
पर आज अपनी क़िस्मत पर रोते हैं जंगल
औद्योगिक विकास की कुल्हाड़ी से कट
रहें हैं जंगल,
नहीं रहीं वह रौनक़ें, नहीं रहीं वे पनाहघर
भटक रहें हैं जानवर,
ख़ाली हो रहीं बस्तियाँ, विलुप्त हो रहीं जनजातियाँ,
खिलवाड़ कर रहा मानव, प्रकृति के उपहार से
काटना तो पड़ेगा, जो बो रहा संसार में।
दोस्तों, जंगल बाहर ही नहीं होते,
मन के भीतर भी होते हैं गहरे जंगल
भावनाओं के, एहसासों के
दुख, उदासी, पीड़ा के चुभते हैं काँटे
ख़ुशियों की शीतल छाया भी देते हैं जंगल,
काटना मत इन जंगलों को
नहीं तो सूने हो जाएँगे
मन के ये जंगल,
और बिखर-बिखर जाएँगे
रिश्तों के घनीभूत जंगल।