भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रिश्तों के जाल / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
मैं फँसी हूँ
रिश्तों के जाल में
जिसके धागों को मैंने स्वयं बाँधा है
अपने रक्त के रेशों से
जिन्हें काट भी नहीं सकती
बाँट भी नहीं सकती।
निकलने की दूर-दूर तक
कोई थाह नहीं
जितनी कोशिश करती हूँ
उतना ही उलझती हूँ
यह उलझन मन की है
जो स्वयं ही बँधता है
और स्वयं ही तड़पता है
रिश्तों के जाल में।
निकलूँ भी तो कैसे
मृगमरीचिका की तरह
ये आगे लिए जाते हैं
टूटते भी नहीं
छूटते भी नहीं
ये तो गहरे और गहरे
होते जाते हैं।