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रिश्तों के दायरे तो सिमटते चले गये / मोहम्मद इरशाद

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रिश्तों के दायरे तो सिमटते चले गये
पर दरमियाँ के फासले बढ़ते चले गये

इस ज़िन्दगी के हम न मसाइल समझ सके
सुलझाये जितने उतने उलझते चले गये

सहरा की प्यास है ये बुझाएँ तो किस तरह
बादल तो आवारा थे गरजते चले गये

अपने ही कर रहे हैं मेरी कैसी पैरवी
मेरे बयान सारे बदलते चले गये

इस राहे ज़िन्दगी में हज़ारों फना हुए
हम थे जो गिरते और सँभलते चले गये

‘इरशाद’ मैंन आज तक देखा नहीं जिसे
अरमान उसके ख़ातिर मचलते चले गये