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रिश्तों के रफ़ूगर / कुमार कृष्ण

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आ रहे हैं मेरे सामने से भागते हुए
रिश्तों के रफ़ूगर
जैसे आती है जैन साधवियों की कतार
आते हैं नेपाल के, बिहार के मजदूर
लोगों के घर बनाने
आती है गाढ़िया लोहारों की टोली
कर जाती है तैयार तमाम भोथरे औज़ार

रिश्तों के रफ़ूगर लगते हैं बड़ी जल्दी में
मैं नहीं जानता वे आये हैं किस जगह से?
जा रहे हैं कहाँ?
मैं दौड़ता हूँ उनको रोकने के लिए
लगाता हूँ आवाज़-
'मुझे भी करवाने हैं कुछ रिश्ते रफ़ू'

वे नहीं रुकते बस भागते चले जाते हैं
भागता हूँ मैं भी उनके पीछे
रुक जाता है अन्ततः एक
झट से पूछता है प्रश्न-
'इस सदी में कैसे पहचान लिया तुमने हमें?'
मैं कहता हूँ उत्तर देते हुए-
'तुम्हारी शक्ल मिलती है कुछ-कुछ
मेरे दादा के साथ
लोग कहते थे उनको रिश्तों का रफ़ूगर
दूर-दूर से आते थे उनके पास
रिश्तों की मरम्मत करवाने
उन्होंने नहीं लाँघा था कभी
किसी पाठशाला का दरवाज़ा
नहीं जानते थे किताबों की भाषा
बस जानते थे गिनना प्यार के पहाड़े
बनाते थे बेवल की- धम्मन की रस्सियाँ
कमाते थे शाम तक दो आने'

हम नहीं रुक सकते
अभी तुम्हारे पास
पहुँचना है हमें शाम होने से पहले
उस गाँव तक
बो रहे हैं जहाँ कुछ लोग रिश्तों के बीज
हमें करना है वहाँ आस्था का अनुष्ठान
करनी है पावन पृथ्वी पर-
निष्ठा की प्रार्थनाएँ
फोड़ने हैं प्रवंचना के सन्देह के ढेले
करनी है विश्वास की वर्षा जिससे-
न पड़े भविष्य में फिर किसी को तुम्हारी तरह
रिश्तों के रफ़ूगर की ज़रूरत।