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रिश्तों के लबादे में दफ़्न / सुदर्शन रत्नाकर
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घर कहाँ था उसका
वो तो कभी हुआ ही नहीं
पिता के घर रहती थी तो
माँ कहती थी, तू अपने घर जाएगी
अपने घर आई तो वह भी
कहाँ था अपना,
वो तो पति का था
जहाँ उसके अहसास दफ़्न
होते रहे
और वह उत्तरदायित्वों से घिरी
जीती रही, अपने लिए नहीं
पति, पुत्र परिवार के लिए।
घर बदलते रहे और
वह हर घर में बंदिशों में जीती रही
गीली लकड़ी-सी सुलगती रही
पुत्री, पत्नी, माँ के रूप में
उसका वजूद बदलता रहा।
वह जीती रही ताउम्र अपनी एक
मज़बूत छत के लिए
जहाँ वह जी सके एक स्त्री की तरह
अपने मन से
रिश्तों के लबादे के बिना
और कह सके यह घर मेरा है
मेरे मन का,
मैं शून्य नहीं हूँ
मेरा अपना स्वतन्त्र वजूद भी है।