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रिहाई / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
ख़्वाब सलाखों में कैद है अब...
अंधेरा चारों ओर, इस पीड़ का, ना कोई पीर हैं
विचारों की हदबंदियों में जकड़े इंसान...
यहाँ सब के सब बेहद गरीब हैं...
काल कोठरी में नजरबंद अब शराफत...
कौन यहाँ इतना शरीफ है
मैं किसे सुनाऊँ मेरे सीने का दर्द...
कौन यहाँ मेरे इतना करीब हैं...
इन हथेलियों की पकड़ अब बहुत कमजोर हो चली...
अंधेरों में जलता, बिखरता बेजान-सा बस ये शरीर है
किससे मैं अब अपनी रिहाई की उम्मीद करूँ...
यहाँ हर एक शख़्स के सर पर सलीब हैं...