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रीते पात्र रह गये रीते / लाला जगदलपुरी
Kavita Kosh से
मचल उठे प्लास्टिक के पुतले,
माटी के सब घरे रह गये।
जब से परवश बनी पात्रता,
चमचों के आसरे रह गये।
करनी को निस्तेज कर दिया,
इतना चालबाज कथनी में;
श्रोता बन बैठा है चिंतन,
मुखरित मुख मसखरे रह गये।
आंगन की व्यापकता का,
ऐसा बटवारा किया वक्त नें;
आंगन अंतर्ध्यान हो गया,
और सिर्फ दायरे रह गये।
लूट लिया जीने की सारी,
सुविधाओं को सामर्थों नें;
सूख गयी खेती गुलाब की,
किंतु ‘कैक्टस’ हरे रह गये।
जाने क्या हो गया अचानक,
परिवर्तन के पाँव कट गये;
’रीते-पात्र’ रह गये रीते,
’भरे पात्र’ सब भरे रह गये।