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री कुंज की शेफालिके! / महादेवी वर्मा
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री कुंज की शेफालिके!
गुदगुदाता वात मृदु उर,
निशि पिलाती ओस-मद भर,
आ झुलाता पात-मर्मर,
सुरभि बन प्रिय जायगा पट-
मूँद ले दृग-द्वार के!
तिमिर में बन रश्मि-संसृति,
रूपमय रंगमय निराकृति,
निकट रह कर भी अगम-गति,
प्रिय बनेगा प्रात ही तू
गा न विहग-कुमारिके!
क्षितिज की रेखा धुले धुल,
निमिष की सीमा मिटे मिल,
रूप के बन्धन गिरें खुल,
निशि मिटा दे अश्रु से
पदचिह्न आज विहान के!
री कुंज की शेफालिके!