भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रुक्मिणी परिणय / आठम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जनिका दिस साकांक्ष नयनसँ विश्व तकैये
जनिक नित्य गुणगान करैत न लोक थकैये।
पुरुषोत्तम शुभ नाम जनिक प्रचलित बुध जनमे
राम-सहित से श्याम समागत छथि उपवनमे।

चर-मुखसँ संवाद सुनि राजा हर्षित ह्वैत छथि।
हरिक स्वागतक हेतु प्रिय परिजन संग चलत छथि।

जा भूपति उद्यान पहुँचि करता अभिनन्दन
ता लग आबि प्रणाम करथि युग यदुकुलन्नदन।
आशिष वचन बजैत भूप झटअंक लगौलनि
किछ क्षण हर्षक प्रबल वेगमे थाह न पौलनि।

बजला गद्गदकंठ हरि, अहाँ सत्य अवतार छी।
मन वचनहुँसँ दूर जे रूप सिन्धु साकार छी।
छी अहँ अनुपम ओज तेज बल विक्रमशाली
रूप निरखि हम कहब जगत उपमासँ खाली।
स्वर्ण-सुगन्धिक योग जकाँ अछि सहज नम्रता
पुरुष-विशेषक पक्ष करै अछि सिद्ध सर्वथा।

वन्दनीय अवनीतलक, प्रणमनीय अपनेक के?
सकल चराचर विश्वमे विद्यमान छथि एक के?

शासक जाति असंख्य अवनिपर आइ भेल छै
भोगक पाछु हरान ससरि सन्तोष गेल छै।
शोषणशील प्रवृत्ति हाथ निर्दय कृपाण छै।
भारतीय जनताक आइ निरुपाय प्राण छै।

धरती आर्त्त कनैत छथि, ते अहँ आयल छी प्रभो!
दनुज समाजक दृष्टिमे मनुज बुझायल छी प्रभो!

जखन जकर अभिवृद्धि उदय सीमा टपैत छै।
चिर अनीति भय मार्ग पकड़ि निर्भय चलैत छै।
श्रुति सन्तक सुविचार समुद्रक पार ह्वैत छै
तखन तकर प्रतिकार एक संहार ह्वैत छै।

सत्य अहिंसा आदि गुण बस बनैत मुहबोल छै।
की ज्ञाता इतिहास अछि की जनैत भूगोल छै।

हृदयक विश्वामित्र छला अभिमान हटौने
क्षत्रिय रहितहुँ छला सहन ब्राह्मणपद पौने।
ऋषि मुनि वृन्दक संग यज्ञ यदि जनहित करता
महानीच मारीच सभक की अनुचित करता?
बाघ सिंह लग आबि स्वयं अभिभूत ह्वैत छल
किन्तु निशाचर निठुर यज्ञ कय ध्वंस दैत छल।
कहि कहि ज्ञानक बात कते मुनिराज बुझाबथि
ऊषरमे जनु बीजपवन कय नहि किछ पाबथि।

त्याग तपक महिमा विफल विफल युक्ति भय जाइ छथि।
हारि मारि मन अन्तमे राम-लखन लय जाई छथि।

अछि उपाय संहार टा मुनिबर जखन कहैत छथि
राम-लखन युग बन्धु वन आबि अस्त्र उठबैत छथि।

उदित अतीतक पुण्य, एतय अपने पहुँचल छी
सम्पति पातक-पुंज निहत हम धौत-धवल छी।
निश्चय हमर भविष्य सुशोभन सत्फलदाता
दर्शन पाबि त्रिकाल सफल हे विश्वविधाता।

कय पूजा-सत्कार नृप चलला यादव-चन्द्र लय।
तरल तरंगित जलधि जनि चलल पाछ आकृष्ट भय।

अर्द्धवृत्त सन नगरद्वार मणिपंक्ति-पिकत्वर
अष्टमीक जनु चान हरिक स्वागत हित तत्पर।
सजल हेमघटसहित दुहू दिस रम्भा रोपित
उड़ि-उड़ि ‘हर हर’ केतु करै छल हरिसँ इंगित।

राज्यक मुद्रा पट्टयुत सम रूपक परिधान अछि।
घूरि रहल भल भूप-भट लय कर कठिन कृपाण अछि।

चन्दन-जलसँ घोल-पखारल पथ उज्जल अछि
कुसुम-गुच्छसँ सज्ज सुशोभन भवन सकल अछि।
पथ-प्रान्तक तरु-पंक्ति विकच कुसुमावलि मंडित
लय पराग मकरन्द उड़ै अछि पवन सुगंधित।

घर-घरसँ धूपक धुआँ उड़ि-उड़ि नभ पसरैत अछि।
जलदालिक आकार लय छाह सुशीतल दैत अछि।

तोरण द्वार अनेक बनल अछि मोड़-मोड़ पर
मणि-प्रदीप अछि खचित दिवारक जोड़-जोड़ पर।
लतरल लत्ती, हरित पात अछि पोर-पोर पर
विपुल तरेगन दृश्य बसातक तोड़-तोड़ पर।

‘शुभ विवाह’ पद माझमे माणिक कृत चमकैत अछि।
नारी-शिर-सिन्दूर सम अद्भुत शोभा दैत अछि।

पिपही पी पी प्रिय-श्याम गुण गीत गबै अछि
बोल तकर अनुकूल ठमाठम ढोल बजै अछि।
धू धू कय करनाल कहय जनु विपद गाढ़ छौ
पड़ा भेड़ केर जेर अरे, आयल हुड़ार छौ!

रूप विविध बहुरूपिया रचि-रचि चकित करैत छै।
पाछु पाछु हलचल चरण बालवृन्द फिरैत छै।

नवतरु शाखा अपन-अपन किसलय-थारीमे
कुसुम-गुच्छ लय दीप सज्ज धारी-धारीमे।
कोकिल कलरव व्याज मनोरम गीत भारती
पवनक सहसँ नाचि करै अछि हरिक आरती।

द्वारि-द्वारि शुक-सारिका हरि-यश कथा कहैत अछि।
गृह कपोत हुंकार कय जनु साकांक्ष सुनैत अछि।

हर्षक वातावरण व्याप्त अछि सगर नगरमे
उद्धव धावक दिव्य दृश्य अछि डगर-डगरमे
सरस गीत संगीत प्रपंचित अछि घर-घरमे
बहुत प्रकारक वाद्य बजै अछि मादक स्वरमे।

स्वर लहरिक आधारपर कर शिर चरण चलत अछि
वारवधू निज नृत्यसँ लोकक चित्त हरैत अछि।

नहि केवल अछि नर-निवास मुद मंगल मंडित
तरु लतिका वन बाग मधुर स्वरसँ अछि झंकृत।
जहि-तहिं कोकिल-कुलक सुकोमल तान चलैये
गुंजन मधुप कदम्ब केर प्रतिपल सङ दैये।

स्वर-समुद्रमे मग्न अछि निरवशेष कुंडित नगर
जा रहला अछि सदलबल श्याम सुदर्शनचक्रधर।

नील-सरोरुह श्याम वदन शत काम लजाबथि
धरणीतल विख्यात कृष्ण से नगरी आबथि।
समाचार अविलम्ब सकल पुरजन-श्रुति गेलै
आँखिक तारा तरल सभक चित चंचल भेलै।

विधु-मुख दर्शन लेल पुर-वारिधि उठल हिलोर छै।
उत्सुक उन्मुख भय चलल जनगण-नयन चकोर छै।

पय पिबैत शिशु त्यागि कते युवती झरकारथि
पैरक भूषण हाथ पहिरि क्यो पथ दिस घाबथि।
गाँथथि मोतिक हार त्वरावश सभ छिड़ियायल
ककरहु यौवन भार विपत्तिक हेतु बुझायल।

डूब सरोवर दैत पट पातर अछि तनमे सटल
बिल्व-लता दौड़लि जेना धय युग पीयर गोल फल।

सम वयसक सखि संग कते आजुक नव कनियाँ
गज-गति चलती पाछु एखन मारथि छरपनियाँ।
उरमे विपुल उमंग गली साँर एकजनियाँ
खसल कतेकक टूटि वेगमे माणिक मणियाँ:

छल धरोहि लागल सुभग पदयुगमे अगुताइ अछि।
प्रवह वायुमे उड़ल जनु अगणित तारा जाइ अछि।

तजि-तजि निज चौपाड़ि छोट बड़ चटिया दौड़ल
सरल बंक गंभीर सहज छटपटिया दौड़ल।

दौड़ल बन्द बजार जनाकुल हटिया दौड़ल
नगरक लोक अशेष लगक धय बटिया दौड़ल।

मुह अदन्त भाथी जकाँ ऊपर नीचा ह्वैत अछि।
टेकि फराठी शिर झुका नहुँ-नहुँ बूढ़ बढ़ैत अछि।