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रुक्मिणी परिणय / चारिम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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लय कर पत्र विदर्भ-नरेशक
चलल दूत लय नाम गणेशक।
पहुँचल राजसभा दमघोषक
देलक पत्र विपुल संतोषक।

लाल लाल अक्षरसँ अंकित
पत्र पढ़ैत परम उत्कंठित
हर्ष-विभोर तते नृप भेला
सुधि-बुधि बिसरि काल किछ गेला।

लय लय पत्र पढ़थि पुनि मत्री
झंकृत भेल सभक उर-तंत्री।
आननपर आनन्दक रेखा
विकसित भेल सरोरुह-लेखा।

बर उत्साह उमड़ि उर आयल
बजला सचिव प्रधान फुलायल।
भूप विदर्भक बड़ यश-भाजन
कुल बल शील निरन्तर पावन।

अनुपम सुन्दरि राजकुमारी
परतर योग्य कतय के नारी?
राजकुमार जेहन गुण-आगर,
आबथि पुत्रवधू तेहन घर।

राजनीतिमे बाजत बाजन
बड़ प्रसन्न हम सभ छी राजन्!
अपन-अपन शुभ संमति-वाणी
कयल सभाक प्रगट सभ प्राणी।

उबडुब हृदय करैत छल
हर्ष-सरोवर थाह नहि।
बजला सचिव-समाज-मुख
वचनक डोरी भूप गहि।

सचिव! सभापद नीक कहै छी,
उचित विचार अहाँ सभ दै छी।
बनल त्रिशंकु अधरमे अँटकल
मनक मनोरथ से हमरो छल।

कृष्णक लेल नरेशक भाषा
सुनि-सुनि मन सन्देहक बासा।
भेल शुभोदय रुक्मिक कारण
प्रेम कुमारक संग पुरातन।

मित्र नरेशक कुशल मंत्रणा
रुक्मि कुमारक सजग सान्त्वना।
हमर प्रपंचित मनक भावना
भेल सफल अछि सकल कामना।

पाबि परसमणि दीन लोकसम
भेल हृदयसँ छी प्रसन्न हम।
गूड़क रस गुण कहत गोंग की?
अलभ लाभ पुनि करब ढोंग की?

मन्त्रि-महोदय! हितचिन्तक जन!
त्वरित बजाउ सहायक नृपगण।
दन्तवक्त्र नृप साल्व विदूरथ
जरासंघ पुनि आबथु अतिरथ।

पौंड्रक आबथु बीर यशस्वी
अपना पक्षक सकल मनस्वी।
सबहुँ सकल विधि सज्जित आबथु
सजि चतुरंग चमू सङ लाबथु।

कृष्ण मलिनमति आबि सकै अछि
अवसर कोनो पाबि सकै अछि।
दुर्दुट कय उत्पात सकै अछि
छलसँ खल कय घात सकै अछि।

यदि कन्श्रयाक हरण कय लेलक
धूर्त्त दहीमे मूसर देलक।
कहू तखन की मोल रहैये?
की वीरक संसार कहैये?

सम्हरि चलब ते समुचित मंत्री!
शत्रु असलमे बड़ खड्यंत्री।
कुटिल जनै अछि बहुबिध माया।
चाही प्रबल अपन सभ पाया।

अपन जते अछि सैन्य सजाबो
अस्त्र-शस्त्रसँ सज्ज बनाबी।
गजरथ अश्व असंख्य पदाती
लय हम चलब संग बरियाती।

क्षत्रिक व्याह सनातन संगर
मंकल करथु सदा शिवशंकर।
बाजत तुरत विवाहक बाजा
अखिल प्रबन्ध करू सभ जा जा।

सभ काजक आदेश दय
उठला नृप उत्सुक छला।
पसरि गेल क्षणमे नगर
उद्धब धावक शृंखला।

हाट बाट सर कूप भवन वन
सकल सुसज्जित देवलोक सन।
एक रूपसँ काटल छाँटल,
विकच पुष्पतरु पथप्रान्तक छल।

तोरणद्वार अनेक विनिर्मित
मरकत मणिक लतादल मंडित
लागल ढोल ढमाढम बाजय,
पिपही लागल सोर मचाबय।

वारवधू गण गीत गबै छल
वीणा वेणु मुरज सङ दै छल।
महाबूड़ि महराजी आयल
हास्यक रसमे सभ भसिआयल।

भाटक चलल कवित्तक झरना
स्वर उदात्त लोकक मनहरना।
चंचल नगर समस्त बुझायल
हर्षक सिन्धु उमड़ि जनु आयल।

जखन पत्र शिशुपाल पबैये
आनन्दक सरि बीच बहैये।
मनक पड़ायल सकल निराशा
पड़ल जेना उत्साहक बासा।

उत्सुक तते दिवस युग मानय
तारा गनि गनि राति बिताबय।
उचटल चित्त कतहु नहि लागय
घरि-फिरि दर्पण आबि निहारय।

सर्जन-शील प्रकृति कृत नारी
मानव मन मीनक अपियारी।
मुनिहुँक मानस उछलि खसै छनि
बुद्धिज्ञान किछ काज न दै छनि।