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रुक्मिणी परिणय / तेरहम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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व्यंग विनोद करैत कहथि हे गिरिवरधारी!
भेल कोना दुइ बाप कोना दुइटा महतारी?
चारू छथि पुनि गोर, अहाँ जलधर सन कारी
छथि की तेसर बाप? कहू हे विपिन बिहारी।

कारा-गृह बन्दी छला युग दम्पति वसुदेव,
गेलहुँ व्रजमोहन! कोना? असल बात सुनि लेब?

असल बात सुनि लेब थिकहुँ अहँ नन्दक बेटा
हम सभ नहि बजबैक, कहू, थिक से सत्तेटा?
गाइक कय चरबाहि अहाँ वन सिखलहुँ चोरी
अनलहुँ ते अनचोक हमर हरि राजकिशोरी।

रुक्मिणीक गहि हाथ हरि कोबरसँ चललाह,
पूर्ण कला संयुत जेना बाहर चन्द्र भेलाह।

बाहर चन्द्र भेलाह सुभग वेदी लग गेला
सभ्य पुरुष उडु वृन्द जकाँ सभ उपगत भेला।
मणि प्रदीप उद्दीप्त विवाहक भूमि बुझायल
राका रजनी सपरिवार जनु एतहि तुलायल।

निज करमे करकंज छथि कृष्ण किशोरिक लैत,
करथि दान मुदमग्न नृप मन्त्र सहित जल दैत।

मन्त्र सहित जल दैत समर्पथि जन सुखदायक
शंभुक पल्लव पाणि सुता जहिना नग-नायक।
युग जोड़िक कर दंड छटा भासित अछि तेना
कंटकयुत जलसिक्त कमल-नालक द्युति जेना।

आहुति पाबि प्रदीप्त मुख पावक आगु प्रसन्न,
युग दम्पति दय सात पद करथि सख्य सम्पन्न।

करथि सख्य सम्पन्न अन्य विधि पूर करै छथि
प्रिया केर शिर सीथ श्याम सिन्दूर भरै छथि।

वाम दहिन दिग्देश सघन घन खंड विभाजित
बाल रविक जनु लाल किरण अछि बीच प्रवाहित।

नन्द महर वसुदेव छथि ठाढ़ विदर्भक भूप,
निश्चल तारा लोचनक वध वरक लखि रूप।

वधू-वरक लखि रूप नयनयुगसँ जल आयल
हर्षक सरिता उमड़ि जेना अश्रुक छल आयल।
भेल मनोरथ पूर्ण जन्म निज ललित बुझै छथि
जन्म भरिक तप त्याग सभहुँ मन फलित बुझै छथि।

आसन लागल पाँतमे चानिक पात्र सचार,
बैसथि पुनि वरयात्रिगण छोट बड़क अनुसार।

छोट बड़क अनुसार अशनमे रत सभ ह्वै छथि
जे छथि भोजनभट्ट डराडोरि ढील करै छथि।
प्राण रहय की जाय, अपन भरि बाज न आयब
सोचथि रसमय वस्तु एहन कहिया पुनि पायब।
ककरो धन्य विचार, लोकमे नाम कमायब
खधुर जनमे जय-स्तंभ हम अपन गड़ायब।’

काल करालक गालमे यथा प्राणिगण जाय,
तथा वृकोदर भीम मुख भोजन वस्तु समाय।

भोजन वस्तु समाय तड़ातड़ि मुहमे दै छथि
सेर पसेरिक कोन कथा मन-मन भरि लै छथि।
अर्द्ध-निमीलित नेत्रयुगल, तन वाम चलै अछि।
आनन विवर अधीर जकाँ अविराम चलै अछि।
विघृत तुहिन गिरि गुहा साल तरु लय-लय दै अछि
घटकर्णक आहार अनेरे मोन पड़ै अछि।

सरस स्वादु सुन्दर विविध पूरी खीर मिठाइ,
व्यंजन विपुल अचार आ चटनी पसरल जाइ।

चटनी परसल जाइ दही चीनी सकरौड़ी
परिवेषक अनवरत करथि प्रति पंक्तिक भौडो।
तरुणी जनक समाज मधुर स्वर गीत गबैछथि
गीतहिं समधिन बहिन नाम लय गारि पढ़ैछथि।

सरियातो छथि भोजनक आग्रह बहुत करैत,
कहितहुँ नहि वर-बन्धु छथि सरस वस्तु किछ लैत।

सरस वस्तु किछ लैत विनोदक हेतु ह्वैत अछि
अट्टहास दुहु दिसक ताड़ पर तोड़ लैत अछि।
व्यंग्य विनोदक उक्ति सरस अविराम चलै अछि
रहि-रहि हास्यक उच्च लहरि उद्दाम चलै अछि।

गणक जनोदित लग्नमे बिदा करथि नरनाह,
यौतुक देथि सनेहसँ कते तकर नहि थाह।

कते तकर नहि थाह धेनु धन गज रथ घोड़ा
भूषण वसन असंख्य स्वर्ण मणि माणिक तोड़ा।
खाजा लड्डुक भार लचै अछि भरल चङेरा
कुन्द कुसुम सम दही हरदि सम पाकल केरा।

सुख-दुखमे जे जन्म भरि छलो अलीजन संग,
आइ बिछोहक कालमे आयल करुण प्रसंग।

आयल करुण प्रसंग नयन जनु साओन भादब
कोढ़ फाड़ि सभ जनिक चलल सीमा टपि कानब।
कहथि परस्पर द्रवितहृदय, सखि! नहि बिसरायब
नारिक जीवन पराधीन पतिगृह सभ जायब।

जननिक पदयुग रुक्मिणी प्रणमथि प्रेम विभोर,
कमलक दलसँ जल जकाँ नयन बहाबथि नोर।

नयन बहाबथि नोर, हृदय रानी लगबैछथि
निर्झर जनु प्रियताक विकल विह्वल बहबैछथि।
वाष्प छन्न अछि कंठ बजै छथि गद्गद वाणी
राखथु अचल सोहाग अहँक गिरिजा महरानी।

हिमगिरि सम उन्नत हृदय सागर सम गंभीर,
राखब निज परिवारमे रहब धरा सम धीर।
रहब धरा सम धीर घरक धौजनि बड़ भारी
राखि न सकथि सम्हारि विचारक हल्लुक नारी।
घरमे सभहक एकरंग नहि प्रकृति ह्वैत अछि
चतुर चातुरिक संग समंजस बना लैत अछि।

चलब सुबुद्धिक बाट अहाँसँ अछि से आशा
नारिक भूषण सहन शक्ति मृदु मंजुल भाषा।

केहनो क्रोधक आगि रहै अछि धधकल मनमे
नम्र मधुर मुह बोल करै अछि शीतल क्षणमे।
अहाँ काजसँ करब तेहन यश-विधुक प्रकाशन
युग कुल कुमुदक रहय प्रफुल्लित सभ दिन आनन।

दीन दुखी आश्रित अतिथि अनुचर घर परिवार
सभहक प्रति राखब अहाँ मति गति अपन उदार।

मति गति अपन उदार अहाँ राखब जीवनमे
दिन दोगुन व्यक्तित्व उजागर हैत भुवनमे।

सास ससुर गुरुजनक सदा राखब उर आदर
छाया सम अनुगमन करब स्वामिक निशि-वासर।
नहि आलस्य प्रमाद करथि वर वनिता बेटी
अपन काज निज करहिं करथि घर रहितहुँ चेटी।

निष्क्रिय जीवन अशुभ विचारक भूमि बनै अछि
आनन्दक उन्माद दुरित दुख दोष अनै अछि।

राखब सौतिन सभक संग सम्बन्ध मनोरम
करति सभहुँ सम्मान सहोदरि जेठि बहिन सम।
गारिक ध्वनि अनुरूप गुहासँ गारि घुरैये
तहिना प्रीतिक शब्द पलटि उर प्रीति पुरैये।

स्वार्थ-परायण भावना घरक लेल अभिशाप,
बन्धु विरोधक जन्म दय करथि भयंकर पाप।

करथि भयंकर पाप अबुझ बहुतो नव कनियाँ
नीक बुझथि मृग किरण जेना जीवन एक जनियाँ।
यज्ञकुंड परिवार अमर्षक अग्नि भरै छथि
बल वैभव सुख शान्ति बना हवि होम करै छथि।
काज निरखि अधलाह धरा धुर धैर कहैये
जीवन छवि अछि गोल, तखन की मोल रहैये।

वसन विभूषण लालसा नित नूतन दुर्वार
शुभदायक नहि थीक से गहलक्ष्मिक व्यापार।

गृहलक्ष्मिक व्यापार सनातन त्याग तपस्या
पतिक संग मिलि करथि समाहित घरक समस्या।

सहयोगक तरु एक सदा सुख-शान्ति फरै अछि
सफल जीवनक सृष्टि परस्पर प्रेम करै अछि।

यदिच तकर प्रतिकूल करथि स्वामिक दुर्गंजन
लिखथि स्वयं शिरपट्ट कलह कोलाहल क्रन्दन।
बनल विलासक दास जेना जीवन परिपाटी
बहुविध पातक दस्यु दलक थिक चंबल घाटी।

नारिक आनन चान नहि, चरित चमत्कृत चान,
राखथि ते तकरा सजग जीवनमे अम्लान।

जीवनमे अम्लान रखै छथि आर्यकुमारी
विफल राहु छथि ह्वैत दशानन अत्याचारी।
कतबो झाँट बिहारि विपत्तिक तीव्र बहै अछि
दमयन्तिक धृति धर्म सदा बनि शैल रहै अछि।
रहल पतिव्रत धर्म एतय प्राणहुँसँ ऊपर
ते छथि उन्नतभाल हमर ई भारत भूपर।

भूप-किशोरिक संग हरि गेला गृह चढ़ि यान
संग यशोदा रोहिणी जननी करथि चुमान।

जननी करथि चुमान मुदित मन गीत गबै छथि
लय कर अक्षत दूबि विप्र गुरु आशिष दै छथि।
युग जोड़िक द्युति दिव्य निरखि सभ सुधि-बुधि हारथि
दूर देश जनु पहुँचि अपन संसार बिसारथि।

रत्न भवन, मणि दीपद्युति, कंचन रचित पलंग,
मृदु मंजुल शय्या सुखद अछि उपघानक संग।

अछि उपघानक संग सुरभि उद्दीपनकारी
नन्दकुमारक अंक बिराजथि राजकुमारी।

हृदयक अविचल भाव रतिक चिरचर्चित नेता
उदित ह्वैत छथि काम सकल जगतीतल जेता।

तेरहम सर्ग समाप्त