भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रुक्मिणी परिणय / तेसर सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सखि संग सुकोमल आसनपर
अवनीश-सुता आसीन छलो।
असुरारि-वधू गण बीच शचीसम
हास-विलास-विलीन छला।

क्यो बाजथि जँ किछ केलिकथा
शुक पंजरगत अनुवाद करय।
बिहुँसैत छली नरनाथ-सुता
बिहुँसैत शुभासन आलि-वलय।

तत्काल तुलायलि एक सखी
मुह चान जकाँ चमकैत छलै।
ओ उत्सुक छलि किछ बात कहति
ते ठोर अरुण फड़कैत छलै।

”की बात थिके? सखि! शीघ्र कहू
रभसैत किये अहँ आयलि छी?“
क्षितिपाल-लली अलिसँ बजली
”भटकैत किये अहँ आयलि छी?“

हे राजकुमारि! बिचारि कहू
की देब निछाबरमे हमरा?
बड़ हर्षक बात सुनायब हम
आवेश अहाँ केर छै ककरा?

शिशुपाल अहँक उर-शम्भु युगक
कर-पंकजसँ अर्चा करता,
शिवके समलंकृत ओ नखसँ
विधुखंड अनेक बना करता।

दमघोष-तनय शिशुपाल थिका
सगला नव चान महीतलमे।
नव तेज प्रतापक अग्नि-शिखा
ओ सिंह थिका जन-जंगलमे।

नलिनोक यथा रवि तिग्म किरण
वर मान्य अहँक शिशुपाल भेला।
दिन निश्चित कय शुभ पत्र पठा
दमघोषक संग बजौल गेला।

श्रुति गेल एते सजनीक कथन
तम केर महानदमे भसली।
सखि-वृन्दक हाहाकार सङहिं
धरतीपर भूप-सुता खसली।

सभ हास-विलासक रंग उड़ल
क्षण क्षुब्ध भेलो पुनि भय हलचल।
क्यों सोचथि शोकर शीत जलक।
हौंकथि क्यौ ताल-वयजन चंचल।

क्यो पाछथि आँखि गुलाब-जले
धमनी कर देखथि क्यो आली।
क्यो आर्त्त पुकारथि त्राहि हरे
हे कृष्ण कलाधर वनमाली।

श्रुतिगोचर कृष्णक नाम जखन
चैतन्य तुलायल आबि तखन।
उठि शोक-शराहत मर्मथली
अवनीश-लली बजली उन्मन।

हे आलि! कहाँ ई की बजलहुँ?
थिक स्वप्न हमर को मति-विभ्रम?
शिशुपालक नाम सुनैत जेना
शरविद्ध हृदय बड़ विह्वल हम।

को सत्य अहाँ ई बात कहल?
की मात्र हँसी हमरा ठकलहुँ?
आश्चर्य लगै अछि आकस्मिक
दुख-वेग कोना हम सहि सकलहुँ।

प्रियवादिनि! नित्य अहाँ मुँहसँ
बड़ हर्षक बोल बजैत छलहुँ।
ने जानि किये अहँ आइ एहन
विषमिश्र वचन हमरा कहलहुँ।

दुखदायक होथि स्वजन अपनो
दुर्देव जखन प्रतिकूल बनथि।
व्यवधान अवनितल होथि जखन
विधु लेल विधुन्तुद शूल बनथि।

शिशुपालक संग विवाह हमर
नहि हैत जते क्षण जीवित छी।
घनश्याम सुदर्शनचक्रवरक
चिरसँ हम प्रेम-प्रभावित छी।

रचि अग्नि-चिता जरि जायब हम
जलमे घसि डूबि मरब अथवा।
गर फाँस लगा प्राणान्त करब
की लेत हमर ओ लंगटबा?

कत दूर दिगन्तक बुधजनसँ
मुनि नारदसँ पुनि सूनल हम,
नलके दमयन्ति जेना मनसँ
अनुरूप अपन वर चूनल हम।

जहिना शिव केर थिकी गिरिजा
जहिना रघुनाथक भूतलजा।
तहिना हम कृष्णक नित्य वधू
अनुभूति हमर ई अन्तरजा।

नृपमान्य सदा श्रीकृष्ण छला
जननी-मुखमंडल अभिनन्दित।
जन-संमत योग्य विचार कहू
अछि भेल किये सखि! प्रतिबन्धित?

कहि गेलि सखी भयभीत तखन
सभ बात जेना जे भेल रहय।
सुनि वृत्त सभाक नरेन्द्र-सुता
बजली पुनि क्रोध पराहत भय।

बहुतो नृप नीच निरंकुश भय
खल-वृत्ति एखन अपनौने छथि।
वाचाल सहोदर जेठ हमर
तेहने निज नीति बनौने छथि।

अत्यन्त अनीतिक कृत्य तनिक
परिणाम भयंकर भावी अछि।
अभिजात कुलक सन्तान थिकहुँ
ते लागल मुहपर जाबी अछि।

थिक नीति सनातन भूमिसुता
अपना मनसँ वरके चूनथि।
अधिकार हमर से छीनि वृथा
ओ बीज अनीतिक हा बूनथि।