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रुक्मिणी परिणय / नवम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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प्राची भरि हेम-कलश आनल नव ओज-तेज
अलसायल विश्व हेतु धरतीपर छोटि देल।
भागल क्षण अलसताक जागल सभ जीव-जन्तु
कानन-तरु कुंज विहग पुंजक मुख मुखर भेल।

प्रातक पवनमान सुरभि शीतल बहि मन्द मन्द
लागल आनन्द अवनि बाँटय जमु लगातार।
तारापथ स्वच्द सुभग आशामुख मधुर हास
शंखक ध्वनि संग भेल भूपक उन्मुक्त द्वार।

बंदीजन आबि आबि नृपकुल यश गाबि-गाबि
लोकक उर चेतनाक नूतन भरि भास देल।
वादक कर ध्वनित वाद्य मादक स्वर कलित गीत
मंगलमय प्रात सभक उर भरि उल्लास देल।

कोकक विरहाग्नि जन्य मनमे घन दुःखदाह
कोकिक नहि निशा आँखि लागल पलकावली।
धरणीपति-सुता श्याम विरहाकुल शान्तिहीन
कछमछ कय राति बिता देने ततुल्य छली।

अन्तःपुर रक्मिणीक आलीजन सुरभि शीत
हाटकघट जले स्नान सादर करबैत गेली।
शोभा जनु मूर्त्तिमती विकसित ऋतुराज केर
लय-लय मकरन्द विपिन देवी नहबैत गेली।

साड़ी अछि पीत रंग दूनू दिस लाल पाढ़ि
कंचुक पुनि नील नवल देहक परिधान भेल।
सत रज तम रचित वस्त्र तीनुक ते तीन रंग
माया प्रत्यक्ष जेना सभके मन भान भेल।

देहक द्युति बीच विकल भूषण मणि-स्वर्णकेर
तरयो प्रिय सखी लोकरीतिक अनुसार देल।
नारिक यदि रूप लेथि राकापति-चन्द्रकला
तारा-गण हैत कोना गहना नव छविक लेल।

कारी शिर चिकुरजाल, आनन छवि धौत-धवल
आलिक कर न्यस्त रुचिर राजल सिन्दूर बिन्दु।
ऊपर घनखंड श्याम लोहित-मणि विभावना
मंगल लय अंक जेना राजथि परिपूर्ण इन्दु।

साड़ी अवदात देह, दीपक सम दीप्त वदन
विदुषी द्विजवर्ग-वधु जखनहि पद आगु देल।
आलिक समुदाय संग हंसक अनुरूप चालि
चलली नरनाथ-सुता गिरजा-पूजाक लेल।

आनन अछि ह्वैत भान शरदक अम्लान चान
कुंडल श्रुति जेना भानु भोरक चमकैत होथि।
दाँतक द्युति संग मुहक कखनहुँ शुचि स्वच्छ हास
आगू पथ छीटि सुधा श्याम जनु दैत होथि।

भेरी यश पटह शंख बाजन ने जानि कते
सुन्दर लय-ताल मिलित गायक जन केर गीति।
जाइत अछि वारवधू गीतिक स्वस्तान दैत
लेने अछि, बुझि पड़य, कोकिल-कलकंठ जीति।

रुक्मिक आदेश पाबि जाइत अछि दहू कात
निष्कृप कृपाण-पाणि पैदल भट सजग भेल।
जाइत अछि विदितवीर्य आयुधकर पाछु-पाछु
हाथी रथ अश्व पृष्ठरक्षक रक्षाक लेल।

गेली गिरजाक गेह, धोलनि युग चरण हस्त
भेली नरनाथ सुता आसनपर समासीन।
उज्ज्वल उर भक्ति भाव, पूजल पद अम्बिकाक
पूरल युग नयन नीर बड़ल जनु सलिल मीन।

बजली कर जोड़ि झुका मस्तक अवनीश सुता
विपतिक क्षण आइ उमा, दासिक दिस देब ध्यान।
माधव वर होथु हमर हृदयक अछि एक अंक
विघ्नक प्राचीर रुद्ध संकटसँ ग्रस्त प्राण।

तपसँ निज मनोनीत शिवके वर पाबि अहाँ
बाला जन बन्दनीय वसुधापर अम्ब, छी।
बूझत के आन मर्म धर्मक गति अहाँ छोड़ि?
नारी जन लेल अहिं आशा अवलम्ब छी।

जननी आ जनक मौन अग्रज प्रतिकूल हमर
आशा नहिं आन कोनो शरणागत भेलि छी।
करुणा अपनेक हैत तखनहि उद्धार हमर
नहि तँ तस्तीण पंकमे हम गड़ि गेलि छी।

कनिये यदि भ्रकुटि भंग, जायत सभ बदलि रंग
दुष्टक व्यासंग हैत निष्फल आमूलचूल।
सीताके अहीं अम्ब, आशिष सप्रेम देल
तखनहि शिवचाप रामचन्द्रक कर भेल फूल।

गौरिक पाषाण मूर्त्ति निश्चल, मुख मौन किन्तु
गगनक अविलम्ब गिरा सबहक श्रुति विवर गेल।
अछि की चिन्ताक बात? विघ्नक शिर दैत लात
अयला हरि चक्र हाथ देखब सभ हैत खेल।

फड़कि उठल वाम अंग वामा केर सङहि संग
भागल सभ शल्य-शूल आनन शशिसदृश तूर्ण।
आदरयुत मान्य जनिक लेलनि शिर चरण धूलि
ओ सभ भरि अंक देथि आशिष आनन्दपूर्ण।

राजकुमारी! रूप अहाँ केर
शत रूपा सम अचल रहओ।
पतिक भक्ति मन अनसूया सम
नित नूतन सरितुल्य बहओ।

शारदाक सम मधुर बोल मुख
जनकनन्दिनी तुल्य क्षमा।
शील हिमाचल सुता तुल्य हो
होउ विभवमे शची-समा।

अर्कप्रभा-सम सदासोहागिनि
हाउ, अचल अहिबात रहओ।
जीवन पथ नित मंगलमय हो
दुख-दाहक क्षण कात रहओ।

आशीर्वाद सुशोभन लय-लय
कय-कय सबहुक आदर मान।
सखिक संग मन्दिरसँ बाहर
अयली सुन्दरताक निधान।

बाहर आबि स्वयं जनु माया
बिहँसि चतुर्दिश फेरथि दृष्टि।
वातावरणक बीच अनेरे
भेल जेना मदमोहक सृष्टि।

छविमय आनन राजकुमारिक
सैनिक अछि निरखैत तेना।
सरस स्वादु भोजनके भूखल
देखि सकै अछि दीन जेना।

आनन मधुर हास उन्मादक
खंजन-नयन मनोभव बाण।
जानि न ककर प्रभाव, हृदयसँ
ससरल सबहक ज्ञान-परान।

अथवा दृगपथ रूप हलाहल
सबहक अणु-अणु गेल समाय
आयुध ससरि खसल पुनि अपनहुँ
काटल गाछ जकाँ अड़राय।

तुरत महारथ केतु तरंगित
नन्दकुमारक लक्षित भेल।
विद्युतवेग जयाकुल दोसर
क्षणमे आबि बहुत लग गेल।

मुखर किंकिणी कंठ मनोहर
गति उद्दादम तुरंगमराज।
भीड़ चीरि चट ततय तुलायल
जतय ठाढ़ छल नारि-समाज।

सिंह जेना निज अंश सियारक
बीच उठा अछि सद्यः लैत।
देव-समूहक जेना आगुसँ
छीनि सुधा छथि गरुड़ चलैत।

राजकुमारिक आगु पसारल
हाथ पकड़ि हरि रथपर लेल।
इंगित पाबि तुरन्त सारथिक
रथ लय घोड़ा उड़ि जनु गेल।

निज जन सुमन विमन कय अरिकुल
बाहर भीड़ भेला अखिलेश।
विकच कंज मुख मलिन कुमुद कय
जेना तिमिरसँ उदित दिनेश।

विकसित आनन नगर-निवासिक।
नयन सरोरुहमे नव हास।
कहथि मनहिमन सभ वनमालिक
करथु विनायक विघ्नविनाश।

श्याम घनक सङ हर्षविधायक
भेल समागम बिजुलौताक।
बाजि उठल समकाल दुन्दुभी
देव तथा यादव जनताक।

जागल रक्षक वीर एतय, ता
रक्ष्य महानिधि भय गेल पार।
लागल शस्त्र चलय अपनहिमे
मूर्खक लाठी बीच कपार।

हर दोष हमर नहि तोहर
तो तकले तो खसले मूढ़।
आबि विवादक बीच बचौलक
जे छल सभसँ बुझनुक बढ़।

विविध खेलमे चेदिनरेशक
छल लागल सभ मित्र-कदम्ब।
निन्द कलह की व्यसन बनै अछि
कार्यविहीन जनक अवलम्ब।

नप कन्याक हरण सुनि मगधा
धीश प्रमुख क्रोधे जरि गेल।
सहसा चिकरि उठल अति आतुर
क्षार जेना क्षतमे पड़ि गेल।

मार मार, धर पकड़, दौड़ चल
ले सभ सैनिक शस्त्र उठाय।
रुक्मिणीक कय हरण कदाचित
धूर्त्त शिरोमणि भागि न जाय।

संचित जीवन भरिक नाम यश
मान प्रतिष्ठा सभ अछि पार।
हमरा लोकनिक परम पराभव
कय अछि भागल चोर चुहार।

इन्द्रक भय मैनाक जकाँ जे
डरसँ भागल, गेल समुद्र।
काल बेसाहि, एखन मनुजाधम
जायत प्रेतपतिक घर क्षुद्र।

काकक घर पिक-पोत जकाँ जे
नन्दक गृह प्रतिपालित भेल।
गोपी जनक सतीत्व कतेकक
लय ई प्राण चसकि खल गेल।

आनक नारि हरण कय नाढ़र
आइ बनल दोसर दशभाल।
लंकापुरिक तुल्य बनि विधवा
द्वारवती कानति चिरकाल।

चोरिक फल की, बुझत आइ खल
ई नहि दूध-दही केर चोरि।
भल घर बेन परसि शठ एखनहि
प्राण गमाओत दाँत निपोड़ि।

दुलहिन छीनि तुरत नहि आनल
जँ नहि मारल कान्ह गोआर।
हमरा लोकनिक बल-वैभवपर
लाखक लाख तखन धिक्कार।

क्रोधे अन्ध जकाँ सभ अटपट
बाजि तुरत निज अस्त्र सम्हारि।
आतुर अपन-अपन रथ चढ़ि-चढ़ि
दौड़ल प्रलयक मूर्त्त बिहारि।

दौड़ल पाछ अपरिमित सैनिक
व्यग्र जेना थिक कोसिक बाढ़ि।
लेत कतेकक प्राण, देत की
बाटक सभटा खेत उजाड़ि।

पैसल हौल हृदय शिशुपालक
भेल जेना कर्त्तव्य-विमूढ़।
होथु कोना दमघोष रणक्षम
कम्पित गात सुशंकित बढ़।

सेना देखि अबैत विपक्षक
यथा निदाघक चंड समीर।
भेल हिमालय जकाँ बाटमे
ठाढ़ उदायुध यादव वीर।

सिन्धु अबै अछि, अचल ठाढ़ छी
हम कुम्भज की सकत बिगाड़ि।
सबहक साहस-शक्ति बजै अछि
संग हमर छथि कृष्ण मुरारि।

नेता जेहन साहसी सक्षम
लोक तकर तकरे समतूल।
सदा सफलता हाथ रहै अछि
साहस एक सुसिद्धिक मूल।

गज रथ अश्व पदाति परस्पर
भेल दुनू दिस संमुख ठाढ़।
अपन-अपन सभ लक्ष्य बना चट
लागल अनधुन करय प्रहार।

शर जल-बिन्दुक तुल्य खसै अछि
खड्ग चलै अछि विद्युत रूप।
भाला बज्रक तुल्य बुझाइछ
रणथल दुर्दिन केर स्वरूप।

घमासान रणमाझ उठै अछि
आयुध-शब्द फटाक फटाक।
लागल खेत खसय भट निकरक
धड़ शिर पैर खटाक खटाक।

भीषण रण अवलोकि रुक्मिणिक
भेल हृदय बड़ त्रस्त उदास।
कहथि कृष्ण हे भीरु, शान्त रहु
हैत क्षणहिमे शत्रु विनाश!

गरुड़क संग कते क्षण जूझत
सोचि सकैछी, भूमि-भुजंग?
जूझि सकै अछि कते कालघरि
सिंहक संमुख आबि कुरंग?
यादव वीरक कोप-अनलमे
शलभ जकाँ जरि मरत अशेष।
अथवा भागत अपन प्राण लय
क्षणमे हैत प्रिये, रण शेष।

उद्धव कृत अक्रूर सात्यकिक
आयुध पुंज-सरिज्जल-पूर।
लागल बूड़ि मरय अव्याहत
शत्रु नरेशक सैनिक शूर।

दौड़ल श्रान्तशरीर अरातिक
गेल हृदय छल भीति समाय।
हड़बड़ सरबड़ समर करै छल
बहुधा शस्त्र विफल चल जाय।

बलदेवक गद छोट सहोदर
आगु धनुषपर दय-दय बाण।
मारय लगला तेना तड़ातड़ि
शिर बरिसै अछि गेन्द समान।