रुक जाओ बादल! / राधेश्याम ‘प्रवासी’
आज मिलन की मधुर यामिनी खिली पूर्णिमा है,
मिधु मण्डल पर छाने वाले रूक जाओ बादल!
मत डालो अवगुण्ठन मुख की आभा पर अपको का,
मत पालो खुशियों की बेला में सावन पलकों का,
प्रणय निवेदन को मत बाँधो आज लाज की पाशों में,
चक्रवाक युग का अतृत्प बन जायेगा पागल!
बरसों की साधना आज वरदान बन रही है,
असम बीन पर भग्न भावना गान बन रही है,
चिन्तन की चेतन चपलाओं क्षण भर रूक जाओ,
किन्हीं प्रतीक्षित नयनों का धुल जायेगा काजल!
मंज़िल का आह्वान आज चलने वाले ने पाया है,
अन्तर का हर तार आज अन्तर में जुड़ पाया है,
जाने दो आहों को उन साँसों तक हिमवाही,
मत छेड़ो कुहरे की रिमझिम के मादक पायल!
शबनम से बोझिल रातों को नीरवता में खोने दो,
अन्धकार की धमता को चिर शान्त पड़ा ही सोने दो,
प्राची पर मुस्काने वाली क्षण भर रुको अरुणि में,
किसी सुहागिन का सिंदूर पड़ जायेगा धूमिल!