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रुख़ हवाओं के फिरे आग जहाँ तक पहुँची / पूजा श्रीवास्तव

रुख़ हवाओं के फिरे आग जहाँ तक पहुँची
बात छोटी सी चल पड़ी तो कहाँ तक पहुँची

बेअदब बोलने में सब शऊर भूल गया
आशिकी दिल से चली और जुबां तक पहुँची

अब तो नदियों से बोल दो बहें तो उलटी बहें
बेखबर जान ले बहकर भी कहाँ तक पहुँची

फ़लसफ़े चाँद की रातों में रंगों खुशबू के
मुझे घायल मिले चाहत भी खिज़ा तक पहुँची

ये फ़साना है कि एहसास फकत हासिल था
यही रूसार कहानी कि बयाँ तक पहुँची