भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रूंख रा छोड़ा / नीरज दइया
Kavita Kosh से
म्हारी बात-बात मांय
मा नै निगै आवै
जीस रो लटको
मा कैवै-
थारा लखण बां दांई है
अर गळगळी हो जावै।
म्हनै लखावै
जीसा रै गयां पछै
मा फगत म्हनैं ई भोळा सकै है
आंसुवां रो भार।
किणी बेटै सारू
इण गत नै अंवेरणो
घणो अबखो काम हुवै।
म्हैं नीं बदळ सकूं खुद नै
जे बदळूं,
म्हारी कलम सूं
खूट जावैला- कवितावां
मा खातर म्हैं
अर म्हारै खातर आ कलम
निसाणी है जीसा री।