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रूख़ पे अहबाब के फिर रंग-ए-मुर्सरत आए / मलिकज़ादा 'मंजूर'

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रूख़ पे अहबाब के फिर रंग-ए-मुर्सरत आए
फिर मेरी सम्त कोई संग-ए-मलामत आए

तेरी रहमत का भरम टूट रहा है शायद
आज आँखों में मेरी अश्‍क-ए-निदामत आए

वक़्त शाहिद है के हर दौर में ईसा की तरह
हम सलीबों पे लिए अपनी सदाक़त आए

हुस्न है उन में तेरा मेरे जुनूँ का अंदाज़
फूल भी ले के अजब शक्ल ओ शबाहत आए

दौर-ए-इशरत ने सँवारे हैं ग़ज़ल के गेसू
फ़िक्र के पहलू मगर ग़म की बदौलत आए