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रूख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था / निश्तर ख़ानक़ाही

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रूख़ बदलते हिचकिचाते थे कि डर ऐसा भी था
हम हवा के साथ चलते थे, मगर ऐसा भी था

लौट आती थीं कई साबिक़* पतों की चिट्ठियाँ
घर बदल देते थे बाशिंदे, नगर ऐसा भी था

वो किसी का भी न था लेकिन था सबका मोतबर*
कोई क्या जाने कि उसमें इक हुनर ऐसा भी था

तोलता था इक को इक अशयाए-मशरफ़* की तरह
दोस्ती थी और अंदाज़े-नज़र ऐसा भी था

पाँव आइंदा* की जानिब, सर गुजिश्ता* की तरफ़
यों भी चलते थे मुसाफिर, इक सफ़र ऐसा भी था

हर नई रूत में बदल जाती थी तख़्ती नाम की
जिसको हम अपना समझते कोई घर ऐसा भी था

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