भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रूख पे भूली हुई पहचान का डर तो आया / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
रूख पे भूली हुई पहचान का डर तो आया
कम-से-कम भीड़ में इक शख़्स नज़र तो आया
मेरे सीने की तरफ़ खुद मेरे नाख़ुन लपके
आखि़र इस ज़ख़्म की टहनी पे समर तो आया
कट गया मुझसे मेरी ज़ात का रिश्ता लेकिन
मुझको इस शहर में जीने का हुनर तो आया
कुछ तो सोए हुए एहसास के बाज़ू थिरके
पाँव से उठके भँवर ता-ब-कमर तो आया
तन की मिट्टी में उगा ज़हर का पौधा चुपचाप
मुझमें बदली हुई दुनिया का असर तो आया
1- समर --फल, 2- ता-ब-कमर--कमर तक