भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूग्‍ण पिताजी / वीरेन डंगवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रात नहीं कटती ? लम्‍बी यह बेहद लम्‍बी लगती है ?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है
जख्‍म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिले थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं

पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाऊंगा
तीन दवाइयां, दो इंजेक्‍शन अभी मुझे लाने है
00