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रूपमाला छंद / अनामिका सिंह 'अना'

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 (1)
सुप्त हैं सब भाव मन के, लेखनी है मौन।
श्वास क्यों बोझिल हुई अब, पूछता यह कौन॥
व्यर्थ है संताप करना, क्या वृथा है बात।
झेलने है अब स्वयं ही, वक़्त के आघात॥

 (2)
शीत नित नश्तर चुभाये, बैर ठाने वात।
कँपकपाते दिख रहे हैं, मुफलिसों के गात॥
लेख किस्मत का लगाये, हर ख़ुशी पर दाग।
सर्द पड़ती नाड़ियाँ हैं, पर उदर में आग॥

 (3)
चित्त है बेचैन हर दिन, क्षुब्ध मन के भाव।
भ्रात ने ही ख़ुद दिये हैं, बांधवी को घाव॥
विधि कहाँ ऐसी 'अना' है, कर सके जो न्याय।
बोझ रुपयों का करेगा, बंद हर अध्याय॥

 (4)
क्यों नहीं घाटी खिलाती, केसरी शुभ फूल।
सोचकर यह नित सिसकते, हैं नदी के कूल॥
हो रहे हैं नित धमाके, मौन है डल झील।
द्वेष की कुत्सित अनल में, बुझ गये कंदील॥