भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रूप, रस, गन्धों वाले दिन / शशिकान्त गीते
Kavita Kosh से
लौट आए भटके-भूले
रूप, रस,
गन्धों वाले दिन।
फूल गाते हैं मीठे गीत
नदी का मधुर, सुगम संगीत
हवा के मनमोहक हैं नृत्य
महकते छन्दों
वाले दिन।
रूप, रस,
गन्धों वाले दिन।
धूप की नज़रें उट्ठी आज
बनी हैं बातें बिन आवाज़
गले से ऊपर सब डूबे
नए अनुबन्धों
वाले दिन
रूप, रस,
गन्धों वाले दिन।
चाँदनी तिरछे करती होंठ
चाँद के मन को रही कचोट
युगों की मरजादों से दूर
टूटते बन्धों
वाले दिन।
रूप, रस,
गन्धों वाले दिन।