रूप, राग, रति-रंग, मदिर मकरन्द-छन्द मेरे / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
रूप, राग, रति-रंग, मदिर मकरन्द-छन्द मेरे!
विगत-अनागत सेतुबन्ध, भुजबन्ध-छन्द मेरे!
मैं संलीन एक ठहरे अन्तस-क्षण में
श्वांसों में बहती हिमाद्रि ऊर्जा-धारा,
जलतरंग-सा प्राण खनकता रहता है
बंजारा तन बजे, कि जैसे इकतारा,
सप्त-सिन्धु रस-ज्वार और तटबन्ध, छन्द मेरे!
विगत-अनागत सेतुबन्ध, भुजबन्ध-छन्द मेरे!
रत्न-शेष सागर-मन्थन तो व्यर्थ गया
विष-मन्थन से अमृत-तृप्ति पायी मैंने,
अन्तरिक्ष का काल-पात्र साक्षी देगा
नीलकंठ से निखिल सृष्टि गायी मैंने,
ध्वन्यंकित सीमान्त-मुक्त, निर्बन्ध, छन्द मेरे!
विगत-अनागत सेतुबन्ध, भुजबन्ध-छन्द मेरे!
मैं सुषुप्ति की घाटी में उतरा स्वर हूँ
मेरा अनुगुन्जन, समाधि का गुन्जन है,
मधु-विस्फोट किया उदयाचल पर मैंने
मैं रवि का दर्पण, रवि मेरा दर्पण है,
मैं अनादि, मेरे अनन्त सम्बन्ध, छन्द मेरे!
विगत-अनागत सेतुबन्ध, भुजबन्ध-छन्द मेरे!
मैं करुणा का धन, मैं रिक्त नहीं होता
कल्प-द्रुम का सहज स्वभाव जिया मैंने,
अर्थान्तर-यात्रा की मेरी कविता ने
गीतों को भाषेतर मर्म दिया मैंने,
शब्द-शून्य सम्वाद-सिद्ध, आनन्द, छन्द मेरे!
विगत-अनागत सेतुबन्ध, भुजबन्ध-छन्द मेरे!