भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रूप-केकी / अज्ञेय
Kavita Kosh से
रूप-केकी नाचते हैं,
सार-घन! बरसो।
बहुत विस्मृत, बहुत सूना
है गगन जिस को नहीं
उन की पुकारें भर सकेंगी,
बहुत है गरिमा धरा की
नहीं उस के कर्ष-बल से आत्म-विभोर भी
उन की उड़ान उबर सकेगी।
तुम्हीं अपनी दामिनी मायाविनी की
लेखनी अमरत्वदायिनी से
उन्हें परसो।
सार-घन! बरसो।
रूप-केकी नाचते हैं,
सार-घन! बरसो।
क्योतो-ओसाका (रेल में), 16 दिसम्बर, 1957