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रूप-केकी / अज्ञेय
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					     रूप-केकी नाचते हैं,
     सार-घन! बरसो।
     बहुत विस्मृत, बहुत सूना
     है गगन जिस को नहीं
     उन की पुकारें भर सकेंगी,
     बहुत है गरिमा धरा की
     नहीं उस के कर्ष-बल से आत्म-विभोर भी
     उन की उड़ान उबर सकेगी।
     तुम्हीं अपनी दामिनी मायाविनी की
     लेखनी अमरत्वदायिनी से
     उन्हें परसो।
     सार-घन! बरसो।
     रूप-केकी नाचते हैं,
     सार-घन! बरसो।
क्योतो-ओसाका (रेल में), 16 दिसम्बर, 1957
	
	