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रूप-नारान के तट पर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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रूप नारान के तट पर
जाग उठा मैं .
जाना,यह जगत्
सपना नहीं है.
लहू के अक्षरों में लिखा
अपना रूप देखा;
प्रत्येक आघात प्रत्येक वेदना में
अपने को पहचाना .
सत्य कठिन है
कठिन को मैंने प्यार किया--
वह कभी छलता नहीं .
मरने तक के दुःख का तप है यह जीवन--
सत्य के दारुण मूल्य को पाने के लिये
मृत्यु में सारा ऋण चुका देना.
६ मई १९४१