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रूप-सागर में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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रूप-सागर में
डुबकी लगवले बानीं।
अनमोल रतन-धन
मिले के उमेद बा।
अब आपन झाँझर नाव लेके
घाटे-घटे कहे घूमी?
अब लहरन पर
खेले-कूदे के बेर बीत गइल
अब अमरता के अथाह सागर में
लीन होखे के बेरा आ गइल।
जवन गीत
कान से सुनल ना जा सके
तवन गीत
जहाँ रोज गावल जाला
ओही अतल-तल के सभ मे
अपना प्राण के वीणा ले के
जाएब आ बजाएब।
बजावे गावे का पहिले
अपना वीणा के स्वर
अनंत के शाश्वत स्वर से
मिला लेब।
अब हमार वीणा
आपन आखिरी गीत गाके
चुप हो जाई
तब ओके चुपचाप
तहरा चरनन में
ध देब, चढ़ा देब।