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रूप का जादू / मुकुटधर पांडेय

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निशिकर ने आ शरद-निशा में-
बरसाया मधु दशों दिशा में,
विचरण करके नभो-देश में, गमन किया निज धाम।

पर चकोर ने कहा भ्रान्त हो,
प्रिय-वियोग दुःख से अशान्त हो-
गया छोड़करके जीवन-धन मुझे कहाँ हा राम!

हुआ प्रथम जब उसका दर्शन
गया हाथ से निकल तभी मन,
सोचा मैंने-यह शोभा की सीमा है प्रख्यात।

वह चित-चोर कहाँ बसता था,
किसको देख-देख हँसता था,
पूछ सका मैं उसे मोह-वश नहीं एक भी बात।

मैंने उसको हृदय दिया था
रुचिर-रूप-रस पान किया था,
था न स्वप्न में मुझको उसकी निष्ठुरता का ध्यान।

मन तो मेरा और कहीं था
मुझको इसका ज्ञान नहीं था-
छिपा हुआ शीतल किरणों में है मरु-भूमि महान।

अच्छा किया मुझे जो छोड़ा
मुझसे उसने नाता तोड़ा,
दे सकता अपने प्रियतम को कभी नहीं मैं शाप।

इतना किन्तु अवश्य कहूँगा
जब तक उसको फिर न चखूँगा
तब तक हृदय-हीन जीवन में, है केवल सन्ताप!

-सरस्वती, मई, 1918