भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूप निहार रहा हूँ / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हें देखता हूँ जब जब भी, कुछ ऐसा लगता है
जैसे दर्पण में अपना ही रूप निहार रहा हूँ।

तुम मिलने आती हो तो यह भाव जागता मन में
दूर देश में भटक भटक कर मैं ही घर आया हूँ
तुम हंस देती हो, ऐसा पुलकित होता है जैसे
कोई बालक हूँ, झोली में सीपी भर लाया हूँ।

मेहंदी रचे हाथ से जब तुम द्वार थपथपाती हो,
लगता है मैं ही ले अपना नाम पुकार रहा हूँ।

हाथ तुम्हारा कभी छू लिया तो आभास हुआ यह
दाएं कर में मैंने बाएं कर को थाम लिया है
सोया गोद तुम्हारी मन में बात मगर आई यह
धर कर शीश बांह पर अपनी ही आराम किया है।

अलक तुम्हारी कभी गूंथ दी, मुझे लगा कुछ ऐसा
जैसे मैं अपने ही बिखरे केश संवार रहा हूँ।

आंख तुम्हारी भर आई जो कभी किसी पीड़ा से
मेरी पलक सावनी बादल-सी गीली हो आई
कभी उदास देख जो मैंने लिया तुम्हारा चेहरा
सांस-सांस मेरी सहसा ही दर्दीली हो आई।

तुम्हें विजय मिल गई रहा त्यौहार मनाता दिन भर
तुम हारीं तो लगा कि जैसे में ही हार रहा हूँ।

यों सब ही कहते हैं हम तुम एक नहीं हैं, दो हैं
जाने क्यों उन पर मुझको विश्वास नहीं होता है
प्राण एक हों तो अलगाव देह का अर्थ-रहित है
देह-मिलन से ही तो कोई पास नहीं होता है।

तुम्हें प्यार कर लिया अपनी बांहों में भर कर
ऐसा अनुभव किया स्वयं को स्वयं दुलार रहा हूँ।

तुम्हें देखता हूँ जब जब भी, कुछ ऐसा लगता है
जैसे दर्पण में अपना ही रूप निहार रहा हूँ।