रूप बदलकर एक टाँग पर खड़ा मगर है
बगुले की तालाब पे लेकिन बुरी नज़र है।
मुँह में अपने आप निवाला आ जाता है
बड़ी सुरक्षित कुर्सी पर बैठा अजगर है।
अंधे राजा के सब पहरेदार सो गये
प्रजा सजग है धोखे में दरबार मगर है।
गाँव छोड़कर अपना मैं यह कहाँ आ गया
फुटपाथों पर जगह नहीं सम्पन्न शहर है।
मँहगाई की मार झेलता आम आदमी
बड़े लोग तो खुश हैं उन पर कहाँ असर है।