भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूबरू होते नहीं रूपोश हो जाते हैं हम / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रूबरू होते नहीं रूपोश हो जाते हैं हम
ऐन मौके पर सदा ख़रगोश हो जाते हैं हम

ज़िन्दगी संघर्ष की जब माँग करती है यहाँ
हमने देखा है तभी बेहोश हो जाते हैं हम

जिन मुकामों पर हमें मुँहज़ोर रहना चाहिए
उन मुकामों पर सदा ख़ामोश हो जाते हैं हम

हम मुख़ालिफ़ साज़िशें करते हैं अपने ही लिए
ख़ुदपरस्ती में जहाँ मदहोश हो जाते हैं हम

इक घिनौना हादसा ही पेश आता है फ़क़त
जब उफ़नती भीड़ का आक्रोश हो जाते हैं हम