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रूबरू / रहगुज़र / शोभा कुक्कल

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ख़ुदा खुद आसमानों से उतर कर ज़मीं पर नहीं आ सकता, इसलिए वक़्त वक़्त पर वह अपना कोई न कोई फरिश्ता भेज दिया करता है हमारे दिल की ज़मीं को जन्नत बनाने के लिए। ऐसा ही एक फरिश्ता ख़ुदा ने मेरे पिता श्री के रूप में धरती पर भेजा जिनके घर की मैं शोभा बनी और वक़्त की धीमी परवाज़ के साथ साथ उनके अनमोल कलम की नीली स्याही के छींटे मेरे मन के कोरे काग़ज़ पर आ गिरे। मुझे पता भी न चला और मैं अपने तोतले भावों को पन्नों पर उतारने लगी और उतारती चली गयी। विरासत में किसी को धन मिलता है तो किसी को ज़मीन , लेकिन मुझे तो विरासत में संस्कारों के साथ साथ अपने भावों को व्यक्त कर पाने की और उन्हें साहित्य प्रेमियों तक पहुंचाने की लेखन कला भी मिली। ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर आकर मैंने महसूस किया कि इससे बड़ी अमीरी किसी भी बच्चे को क्या ही मिल सकती है। फिर दैवयोग से मेरी ज़िन्दगी में प्रसिद्ध शायर श्री राजेन्द्र नाथ रहबर जी आये और उन्होंने इसे एक नई पहचान दी। उन्होंने मुझे ग़ज़ल विधा की बारीकियां समझाईं और निरन्तर लिखने की प्रेरणा देते रहे। यह ग़ज़ल सरस, दिल को छू लेने वाली और रूह के बहुत करीब होती है लेकिन शास्त्रीय नियमों से बंधी होती है, जो बिना गुरु के नहीं सीखी जा सकती। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से समूची अदबी दुनिया वाकिफ़ है।

उन्होंने मेरे कांच जैसे मूल्यहीन लफ़्ज़ों को तराशा और आबदार हीरा बना दिया। मेरी खुश किस्मती है कि उनकी सरपरस्ती में मैं अपना दीवान-ए-ग़ज़ल पाठकों को दे पा रही हूँ। उन्होंने एक सच्चे गुरु की तरह मुझे कब, क्या और कैसे सिखा दिया, मुझे पता भी न लगने दिया। मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह उन्हें सलामत-बा-करामत रखे ताकि उनकी सरपरस्ती में हम सदैव कुछ न कुछ नया सीखते रहें।


कुदरत के नज़ारे बचपन से ही अपनी ओर खींचते रहे। चिड़ियों का चहचहाना, नदियों झरनो का बहना, फूलों का खिलना, तितलियों का रंग चुराना, भंवरों का फूलों से पराग लेना फिर उन्हीं में बन्द हो जाना मुझे बहुत भाता था। यहां तक कि पतझड़ में गिरते पत्तों की आवाज़ें भी मुझे अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहती थीं। मैं घण्टों बगीचे में बैठी शबनम भीगे पत्तों को निहारती रहती और अजीब सी नूरानी ताक़त महसूस करती जो मेरी रूह को छू जातीं ग़ज़ल का रिश्ता भी रूह से कुछ ऐसा ही है और उससे भी गहरा रूह का कुदरत से शायद यही वजह रही होगी जिसने मुझे ग़ज़ल लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।

मैं मानवीय संवेदनाओं को दिल से महसूस करती मेरी इस आदत ने चेतना शक्ति को ताक़त दी और मैं लिखती रही। 'जहां चाह वहां राह' शायद इसलिए जीवन में ख़ुदा के बनाए खास इंसानों से मिलती गई जिन्होंने मेरे जीवन को सार्थकता प्रदान की और एक नई पहचान भी दी। मैं बहुत से जाने माने लेखकों और पत्रकारों से जुड़ती ची गयी। संचेतना के पहले चरण से ही मैं मिर्ज़ा ग़ालिब को पढ़ती व सुनती थी। प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह जिन्होंने राजेन्द्र नाथ रहबर जी की मशहूर नज़्म 'तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलता कैसे' गाई, उनकी आवाज़ के जादू ने और ग़ज़ल विधा को साधारण व्यक्तियों की समझ तक पहुंचाने की कला ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मैं अक्सर उनकी व गुलाम अली की ग़ज़लें सुना करती हूँ और गुनगुनाती रहती हूँ।

जहां तक उर्दू ज़बान का सवाल है मुझे लिखनी तो नहीं आती, लेकिन समझ व बोल लेती हूँ। पूज्य पिता जी ऐसे इलाकों में रहे जहां मीठी उर्दू ज़बान अधिक बोली जाती थी। यह अंजाने ही मेरु हिन्दी और पंजाबी के साथ ऐसे जुड़ गयी जैसे उनकी तीसरी बहन हो। ग़ज़ल लिखने में मुझे इससे काफी सहायता मिली।

मैं उन सब मित्रों-सहयोगियों की शुक्रगुज़ार हूँ, जिन्होंने समय समय पर मेरा मार्गदर्शन किया और नर हौसला बढ़ाया। वे हर मोड़ पर मेरे साथ साये की तरह रहे। मैं अपने निर्विघ्न लेखन का श्रेय प्रमुखतः अपने हसीन-ज़हीन परिवार माला के ख़ूबसूरत मन को....ईक्शा, आश्ना, प्रिशा, रीया,प्रियंका, पुनीत, नीरू, पंकज, और मेरे आती प्रेम लाल कुक्कल जी को देति हूँ।


मैं शुक्र गुज़ार हूँ उन सभी सुधी पाठकों की जिन्होंने मेरी प्रथम काव्य कृति 'क़तरा क़तरा लम्हा लम्हा' को जी भर कर चाहा, सराहा और प्यार दिया। अब ख़ुदा के बख्शे वेश-कीमती नूरानी कतरों को ग़ज़ल संग्रह 'रहगुज़र' में पिरो कर सौंप रही हूँ। उम्मीद है यह आपके दिल तक पहुंचेगी। आपकी बेबाक़ राय की शिद्दत से इंतज़ार रहेगी।