रूमा / सुकुमार चौधुरी / मीता दास
बड़े दिनों बाद मुलाकात हुई रुमा नाम की उस लड़की से 
महरून रंग की साड़ी, गाढ़े नीले रंग का कार्डिगन, 
रक्तिम स्लीपर 
ढलती शाम की धूप में अनार के फूल की तरह 
लग रहा था वह मुखड़ा । 
उसके उड़ते बालों की झील में खेल रही थी 
विदा लेते दिन की लालिमा। 
आदि दिगन्त जैसी भौहों की सन्धि पर यह मोहक बिन्दी 
कितने दिनों के बाद छू लेने की इच्छा हुई। 
जबकि सैकड़ों आलोकित वर्ष कट जाने के बाद 
यह चेहरा देख 
अनेक स्वप्न भरे द्वीपों में चक्कर लगाते-लगाते 
आख़िर ख़त्म हुआ 
अन्ध पर्यटन 
फिर भी अंजलि भर उठा ही ली शिल्प-कला।
 
ख़ुद को भिखारी-सा महसूस किया 
और लगा दृष्टि हीन भी हूँ, 
जैसे मैंने कुछ देखा ही नहीं 
इतना रूप, इतना अपार
ऐसा ही अगम्य वह शिल्प मुखड़ा, 
इतना गम्भीर 
जैसे समुद्र पठार इन नीली आँखों में बह गया...
 
मेरी बुद्धि भी...? 
मूल बांग्ला से अनुवाद — मीता दास
	
	