रूहों को जिस्म रोज कहाँ मिलते हैं / वंदना गुप्ता
तुम्हारी सदायें
क्यूँ इतना कराह रही हैं
क्यूँ तुम्हें करार नहीं आ रहा है
सब जानती हूँ
मुझ तक पहुँच रही हैं
तुम्हारी चीखें
तुम्हारा दर्द
तुम्हारी बेचैनी
तुम्हारी पीड़ा
सब सुन रही हूँ मैं
जानते हो
जब मंदिर में
घंटा बजता है
उसमे मुझे तुम्हारा
चीखता हुआ दर्द
आवाज़ देता है
जब भी सावन में
बिजली कड़कती है
उसमे मुझे
तुम्हारी धराशायी
होती आशाएं
दिखाई देती हैं
कैसे तुम्हारे
आस के फूल पर
बिजली गिरती है
और तुम
लहूलुहान होते हो
सब जानती हूँ मैं
तुम्हारी पीड़ा का
दिग्दर्शन करती हूँ
जब भी किसी
रेगिस्तान को
तपते देखती हूँ
कैसे एक - एक बूँद को
तुम तड़पते हो
मोहब्बत की
कैसे साँस तुम्हारी उखड्ती है
जब मोहब्बत की
बयार रुकने लगती है
कैसे होंठ पपड़ा जाते हैं
जब मोहब्बत को
ज़िन्दा जलते देखते हो
सब जानती हूँ मैं
मगर क्या करूँ
प्रियतम
तुम तो जानते हो न
मेरी मजबूरियाँ
अब कैसे सितारों
की ओढनी ओढूँ
अब कैसे तेरे आँगन
में तुलसी बन महकूँ
अब कैसे फिर वो
रूप धरूँ जिसमे
तू कुछ पल जी सके
मोहब्बत को पी सके
जानते हो न
रूहों को जिस्म रोज कहाँ मिलते हैं