भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रूह के ज़ख़्मों से छनती रोशनी अच्छी लगी / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
रूह के ज़ख़्मों से छनती रोशनी अच्छी लगी
थी बहुत बे-दर्द लेकिन ज़िंदगी अच्छी लगी
कम से कम सीरत* तो उसकी मुझसे पोशीदा* रही
चार दिन के हमसफ़र की दोस्ती अच्छी लगी
क़ुमक़ुमों की जगमगाहट में बदन अच्छा लगा
बुझ गई बिजली तो छत पर चाँदनी अच्छी लगी
मुज़तरिब* होठों पे उसके तरबियत-कर्दा* हँसी
वहशतों के दरमियाँ शाइस्तगी* अच्छी लगी
उसको माचिस की ज़रूरत रात मुझ तक लाई थी
एक लम्हे की सही हम-सायगी अच्छी लगी
थी नज़र कुछ ख़ास ज़हनी हालतों पर मुन्हसिर*
एक ही सूरत कभी नाक़िस, कभी अच्छी लगी।
1- सीरत--चरित्र
2- पोशीदा --निहित
3- मुज़तरिब--व्याकुल
4- तरबियत-कर्दा--सधी हुई
5- शाइस्तगी--सुघड़ता
6- मुन्हसिर--निर्भर