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रूह को क़ैद किए जिस्म के हालों में रहे / शाहिद कबीर
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रूह को क़ैद किए जिस्म के हालों में रहे
लोग मकड़ी की तरह अपने ही जालों में रहे
जिस्म को आईना दिखाते हैं साए वर्ना
आदमी के लिए अच्छा था उजालों में रहे
वक़्त से पहले हो क्यूँ ज़हन पे ख़ुर्शीद का बोझ
रात बाक़ी है अभी चाँद प्यालों में रहे
फिर तो रहना ही है घूरे का मुक़द्दर हो कर
फूल ताज़ा है अभी रेशमी बालों में रहे
शौक़ ही है तो बहर-हाल तमाशा बनिए
ये ज़रूरी नहीं वो देखने वालों में रहे
अब कैलेंडर में नया ढूँढ़िए चेहरा ‘शाहिद’
कब तलक एक ही तस्वीर ख़यालों में रहे