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रे! खुद ही दीप बुझाना क्या? / शैलेन्द्र सिंह दूहन
Kavita Kosh से
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
तूफानों से घबराना क्या?
अपने पैरों आप चले बिन
अपने हाथों आप पले बिन,
औरों की दी रोटी का भी
है खाने में खाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
टूटे सपनों से भरमा कर
साँसों का ही बोझ उठा कर,
सूखी नदिया के इक तट से
है दूजे तट पे जाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
अपनी नज़रों में ही गिर कर
आपे को ही कह कर दिनकर,
औरों की खींची लीकों पे
है धाने में धाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
संघर्षमयी संगीत भुला
सब साहस वाले गीत भुला,
यों ही ठाले बैठे-बैठे
है मंजिल का भी पाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?