रेख़ते के बीज / कृष्ण कल्पित
उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पर एक लम्बा पर अधूरा वाक्य
एक दिन मैं दुनिया जहान की तमाम महान बातों महान साहित्य महान कलाओं से ऊब-उकताकर उर्दू-हिन्दी शब्दकोष उठाकर पढ़ने लगा जिसे उर्दू में लुग़त कहा जाता है यह तो पता था लेकिन दुर्भाग्यवश यह पता नहीं था कि यह एक ऐसा आनंद-सागर है जिसके सिर्फ़ तटों को छूकर मैं लौटता रहा तमाम उम्र अपनी नासमझी में कभी किसी नुक़्ते-उच्चारण-अर्थात के बहाने मैं सिर्फ़ जलाशयों में नहाता रहा इस महासमुद्र को भूलकर और यह भूलकर कि यह लुग़त दुनिया के तमाम क्लासिकों का जन्मदाता है और एक बार तो न जाने किस अतीन्द्रिय-दिव्य प्रेरणा से इसे मैंने कबाड़ी के तराज़ू पर रखकर वापस उठा लिया था इसकी काली खुरदरी जिल्द का स्पर्श किसी आबनूस के ठण्डे काष्ठ-खण्ड को छूने जैसा था जिससे बहुत दिनों तक मैं अख़बारों के ढेर को दबाने का काम लेता रहा जिससे वे उड़ नहीं जाएँ अख़बारी हवाओं में इसे यूँ समझिए कि मेरे पास एक अनमोल ख़ज़ाना था जिसे मैं अपनी बेख़बरी में सरे-आम रखे हुए था यह वाक्य तो मैंने बहुत बाद में लिखा कि एक शब्दकोष के पीले-विदीर्ण-जीर्ण पन्नों पर मत जाओ कि दुनिया के तमाम आबशार यहीं से निकलते हैं कि इसकी थरथराती आत्मा में अब तक की मनुष्यता की पूरी कहानी लिखी हुई है कि इसकी पुरानी जर्जर काया में घुसना बरसों बाद अपने गाँव की सरहदों में घुसना है कि मैंने इसके भीतर जाकर जाना कि कितनी तरह की नफ़रतें होती हैं कितनी तरह की मुहब्बतें कैसे-कैसे जीने के औज़ार कैसी-कैसी मरने की तरक़ीबें कि इसकी गलियों से गुज़रना एक ऐसी धूल-धूसरित सभ्यता से गुज़रना था जहाँ इतिहास धूल-कणों की तरह हमारे कन्धों पर जमता जाता है और महाभारत की तरह जो कुछ भी है इसके भीतर है इसके बाहर कुछ नहीं है एक प्राचीन पक्षी के पंखों की फड़फड़ाहट है एक गोल गुम्बद से हम पर रोशनी गिरती रहती है जितने भी अब तक उत्थान-पतन हैं सब इसके भीतर हैं इतिहास की सारी लड़ाइयाँ इसके भीतर लड़ी गईं शान्ति के कपोत भी इसके भीतर से उड़ाए गए लेकिन वे इसकी काली-गठीली जिल्द से टकराकर लहूलुहान होते रहे और यह जो रक्त की ताज़ा बूँदें टपक रही हैं यह इसकी धमनियों का गाढ़ा काला लहू है जो हमारे वक़्त पर बदस्तूर टपकता रहता है जो निश्चय ही मनुष्यता की एक निशानी है और हमारे ज़िन्दा रहने का सबूत गुम्बदों पर जब धूप चमक रही हो तब यह एक पूरी दुनिया से सामना है यह एक चलती हुई मशीन है वृक्षों के गठीले बदन को चीरती हुई एक आरा मशीन जिसका चमकता हुआ फाल एक निरन्तर धधकती अग्नि से तप्त-तिप्त जहाँ काठ के रेशे हम पर रहम की तरह बरसते हैं पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह अपने रंग-रेशों-धागों को अपनी आत्मा से सटाए हुए हम हमारे इस समय में गुज़रते रहते हैं यह जानते हुए कि जिन-जिन ने भी इन शब्दों को बरता है वे हमारे ही भाई-बन्द हैं एक बहुत बड़ा सँयुक्त परिवार जिसके सदस्य रोज़ी-रोटी की तलाश में उत्तर से पच्छिम व पूरब से दक्खिन यानी सभी सम्भव दिशाओं में गए और वह बूढ़ा फ़क़ीर जो रेख़ते के बीज धरती पर बिखेरता हुआ दक्खिन से पूरब की तरफ आ रहा था जिसे देखकर धातु-विज्ञानियों ने लौह-काष्ठ और चूने के मिश्रण से जिस धातु का निर्माण किया उससे मनुष्य ने नदियों पर पुल बनाए लोहे और काष्ठ के बज्जर पुल जिन पर से पिछली कई शताब्दियों से नदियों के नग्न शरीर पर कलकल गिर रही है चूना झर रहा हैं अंगार बरस रहा है और जिसके कूल-किनारों पर क़ातिल अपने रक्तारक्त हथियार धो रहे हैं वे बाहर ही करते हैं क़त्ले-आम ताण्डव बाहर ही मचाते हैं क़ातिल सिर्फ़ मुसीबत के दिनों में ही आते हैं किसी शब्दकोष की जीर्ण-शीर्ण काया में सर छिपाने वे ख़ामोश बैठे रहते हैं सर छिपाए क़ाज़ी क़ायदा क़ाबू क़ादिर और क़ाश के बग़ल में और क़ाबिले-ज़िक्र बात यह है कि क़ानून और क़ब्रिस्तान इसके आगे बैठे हुए हैं पिछली कई सदियों से और और इसके आगे बैठे क़ाबिलियत और क़ाबिले-रहम पर हम तरस खाते रहते हैं जैसे मर्ग के एक क़दम आगे ही मरकज़ है और यह कहने में क्या मुरव्वत करना कि मृत्यु के एकदम पास मरम्मत का काम चलता रहता है और बावजूद क़ातिलों को पनाह देने के यह दुनिया की सबसे पवित्र किताब है जबकि दुनिया के तमाम धर्मग्रन्थों को हर साल निर्दोष लोगों के रक्त से नहलाने की प्राचीन प्रथा चलती आती है इस तरह पीले नीले गुलाबी हरे रेशम वस्त्रों में लिपटे हुए धर्मग्रन्थ मनुष्य के ताज़ा खून की तरह प्रासंगिक बने रहते हैं जबकि यहाँ दरवाज़े से झाँकते ही हमें दरिन्दे और दरवेश एक से लबादे ओढ़े हुए एक साथ नज़र आते हैं लुग़त के एक ही पन्ने पर गुज़र-बसर करते और उस काल्पनिक और पौराणिक धार की याद दिलाते हुए जहाँ शेर और बकरी एक साथ पानी पीते थे और यह तो सर्वथा उचित ही है कि शराब शराबख़ाना शराबख़ोर और शराबी एक ही इलाक़े में शिद्दत से रहें लेकिन क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं कि शराफ़त जितनी शराबी के पास है उतने पास किसी के नहीं हालाँकि शर्मिन्दगी उससे दो-तीन क़दम दूर ही है यह कोई शिगूफ़ा नहीं मेरा शिकस्ता दिल ही है जो इतिहास की अब तक की कारगुज़ारियों पर शर्मसार है जिसका हिन्दी अर्थ लज्जित बताया गया है जिसके लिए मैं शर्मिन्दा हूँ और इसके लिए फिर लज्जित होता हूँ कि मुझे अब तक क्यों नहीं पता था कि मांस के शोरबे को संस्कृत में यूष कहा जाता है शोरिश विप्लव होता है १८५७ जैसा धूल उड़ाता हुआ एक कोलाहल और इस समय मैं जो उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पढ़ रहा हूँ जिसके सारे शब्द कुचले और सताए हुए लोगों की तरह जीवित हैं इसके सारे शब्द १८५७ के स्वतंत्रता-सेनानी हैं ये सूखे हुए पत्ते हैं किसी महावृक्ष के जिससे अभी तक एक प्राचीन संगीत क्रंदन की तरह राहगीरों पर झरता रहता है यह एक ऐसी गोर है जिसके नीचे नमक की नदियाँ लहराती रहती हैं आँधियों में उड़ता हुआ एक तम्बू जो जैसा भी है हमारा आसरा है एक मुकम्मल भरोसा कि यह हमें आगामी आपदाओं से बचाएगा कहीं से भी खोलो इस कोहे-गिराँ को यह कहीं से भी समाप्त नहीं होता है न कहीं भी शुरू जैसे सुपुर्द का मानी हुआ हस्तांतरित तो क्या कि शराब का मटका और सुपुर्दगी होते ही हवालात में बदल जाता है गाने-बजाने का सामान होता है साज़ पर वह षड्यंत्र भी होता है मरते समय की तकलीफ़ को सकरात कहते हैं शब्द है तो मानना ही पड़ेगा कि वह चीज़ अभी अस्तित्व में है सकरात की तकलीफ़ में भी शब्द ही हमारे काम आएँगे यह भरोसा हमें एक शब्दकोष से मिलता है जिसे मैं क्लासिकों का क्लासिक कहता हूँ जिस उर्दू-हिन्दी शब्दकोष को मैं इस समय पढ़ रहा हूँ उसे ख़रीद लाया था सात बरस पहले एक रविवार दिल्ली के दरियागंज से एक किताबों के ढेर से फ़क़त बीस रुपयों में उस कुतुब फ़रोश को भला क्या पता कि गाँधी की तस्वीर वाले एक मैले-कुचैले कागज़ के बदले में आबे-हयात बेच रहा है वह एक समूची सभ्यता का सौदा कर रहा है सरे-राह जिसमें सकरात के फ़ौरन बाद सुकूत है और इसके बाद सुकून इसके बाद एक पुरानी रिहाइश है जहाँ हम सबको पहुँचना है काँटों से भरा एक रेशम-मार्ग सिल्क जिसे कभी कौशेय कभी पाट कभी डोरा कभी रेशम कहा गया यह एक सिलसिलाबंदी है एक पंक्तिबद्धता जो हमारे पैदा होने से बहुत पहले से चली आती है क्या आप जानते हैं कि समंदर एक कीड़े का नाम है जो आग में रहता है ऐसी ऐसी हैरत अंगेज़ आश्चर्यकारी बातें इन लफ़्ज़ों से बसंत के बाद की मलयानिल वायु में मंजरियों की तरह झरती रहती हैं ऐसे ऐसे रोज़गार आँखों के सामने से गुज़रते हैं मसलन संगसाज़ उस आदमी को कहते हैं जो छापेख़ाने में पत्थर को ठीक करता और उसकी ग़लतियाँ बनाता था और यह देखकर हम कितने सीना सिपर हो जाते थे कि हर आपत्ति-विपत्ति का सामना करने को तैयार रहने वालों के लिए भी एक लफ़्ज़ बना है तथा जिसे काया प्रवेश कहते हैं अर्थात अपनी रूह को किसी दूसरे के जिस्म में दाखिल करने के इल्म को सीमिया कहते हैं जो लोग यह सोच रहे हैं कि अश्लीलता और भौंडापन इधर हाल की इलालातें हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि यह उरयानी बहुत पुरानी है पुरानी से भी पुरानी दो पुरानी से भी अधिक पुरानी काशी की तरह पुरानी लोलुपता जितनी पुरानी लालसा और कामशक्तिवर्द्धक तेल तमा जितनी पुरानी और जिसमें उग्रता, प्रचंडता और सख्त तेज़ी जैसी चीज़ें हों उसे तूफ़ान कहा जाता है और आदत अपने आप में एक इल्लत है जैसा कि पूर्वकथन है कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है कहीं पर भी समाप्त किया जा सकता है फिर से शुरू करने के लिए एक शब्द के थोड़ी दूर पीछे चलकर देखो तुम्हें वहाँ कुछ जलने की गंध आएगी एक आर्त्तनाद सुनाई पड़ेगा कुछ शब्द तो लुटेरों के साथ बहुत दूर तक चले आए लगभग गिड़गिड़ाते रहम की भीख माँगते हुए शताब्दियों के इस सफ़र में शब्द थोड़े थक गए हैं फिर भी वे सिपाहियों की तरह सन्नद्ध हैं रेगिस्तान नदियों समन्दरों पहाड़ों के रास्ते वे आए हैं इतनी दूर से ये शब्द विजेताओं की रख हैं जो यहाँ से दूर फ़ारस की खाड़ी तक उड़ रही है इनका धूल धूसरित चेहरा ही इनकी पहचान है ये अपने बिछड़े हुओं के लिए बिलखते हैं और एक भविष्य में होने वाले हादसे का सोग मनाते हैं और इनके बच्चे काले तिल के कारण अलग से पहचाने जाते हैं यहाँ उक़ाब को गरुड़ कहते हैं जिसे किसने देखा है एक ग़रीबुल-वतन के लिए भी यहाँ एक घर है कहने के लिए कंगाल भी यहाँ सरमाएदार की तरह क़ाबिज़ है यह एक ऐसा भूला हुआ गणतंत्र है जहाँ करीम और करीह पड़ोसी की तरह रहते हैं यह अब तक की मनुष्यता की कुल्लियात है हर करवट बैठ चुके ऊँट का कोहान एक ऐसा गुज़रगाह जिसपर गुज़िश्ता समय की पदचाप गूँज रही है और इससे गुज़रते हुए ही हम यह समझ सकते हैं कि हमारा यह उत्तर-आधुनिक समय दर अस्ल देरीदा-हाल नहीं बल्कि दरीदा-हाल है किंवा यह फटा-पुराना समय पहनकर ही हम इस नए ज़माने में रह सकते हैं यह जानते हुए कि लिफ़ाफ़ा ख़त भेजने के ही काम नहीं आता हम चाहें तो इसे मृत शरीरों पर भी लपेट सकते हैं एक निरंतर संवाद एक मनुष्य का दूसरे से लगातार वाकोपवाक एक अंतहीन बातचीत कई बार तो यह शब्दकोष जले हुए घरों का कोई मिस्मार नगर लगता है जहाँ के बाशिंदे उस अज्ञात लड़ाई में मारे गए जो इतिहास में दर्ज नहीं है एक कोई डूबा हुआ जहाज़ एक ज़ंग खाई ज़ंजीर टूटा हुआ कोई लंगर एक सूखा हुआ समुद्र उजाड़ रेगिस्तान एक वीरान बंदरगाह एक उजड़ा हुआ भटियारख़ाना इसी तरह धीरे धीरे हमारी आँखें खुलती हैं और हवा के झोंकों से जब गुज़िश्ता गर्द हटती है तब हमारा एक नई दुनिया से सामना होता है जहाँ विपत्तियों-आपदाओं और बुरे वक़्त में इस शब्दकोष से हम उस प्राचीन बूढ़े नाविक की तरह एक प्रार्थना बना सकते हैं;
एक जीर्णशीर्ण शब्दकोष इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह मुसीबत के दिनों में मनुष्यता के लिए एक प्रार्थना बन जाए, भले ही वह अनसुनी रहती आई हो।
कृष्ण कल्पित की यह अद्भुत कविता सम्बोधन के समकालीन युवा कविता विशेषांक (2010) में छपी।