भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेखा-चित्र / प्रभाकर माचवे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संझा है धुन्धली, खड़ी भारी पुलिया देख,
गाता कोई बैठ वाँ, अन्ध भिखारी एक ।

दिल का बिल्कुल नेक है, करुण गीत की टेक —
‘साईं के परिचै बिना अन्तर रहिगो रेख' ।...
(उसे काम क्या तर्क से, एक कि ब्रह्म अनेक !)

उसकी तो सीधी सहज कातर गहिर गुहार :
चाहे सारा अनसुनी कर जाए संसार !
कोलाहल, आवागमन, नारी-नर बेपार,
वहीं रूप के हाट में, जुटे मनचले यार ।

रूपज्वाला पर कई लेते आँखें सेक —
कई दान के गर्व में देते सिक्के फेंक !

कोई दरद न गुन सका, ठिठका नहीं छिनेक,
औ’ उस अन्धे दीन की रुकी न यकसाँ टेक —
‘साईं के परिचै बिना अन्तर रहिगौ रेख !'