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रेगिस्तानी हवा में / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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मैं कभी नहीं भूल सकता
किस तरह
तुमने मुझे उबार लिया था
शोक में डूबी एक रात से।

आकाश की आँखों में झोंक रही थी धूल
बाहर चल रही
रेगिस्तानी हवा।

अँधेरे में रिन टिन-रिन टिन...करता बढ़ता जा रहा
ऊँटों का एक कारवाँ
अपनी नाक आसमान तक ऊँची किये
शहर पीठ-पीछे छोड़, गाँव की ओर।

रास्ते के उस पार, वह कौन-सा पेड़ है
मैं नहीं जानता।
बगीचे में खिला वह कौन-सा फूल है
मैं नहीं जानता।

मैं परदेसी हूँ
इस शहर के लिए
नया।

थोड़ी दूर पर
ज़मीन से थोड़ी ऊँचाई पर
हर घड़ी, दम साधे
आपस में ही काट-पीट का, खेल रही हैं खेल
गाड़ी की रोशनियाँ।
जान पड़ती हैं किसी कोढ़ फूटे आदमी के
माथे पर खिंची लकीरों-सी।

अचानक मेरी आँखों के आँसू पथरा गए-
लगा, कोई अदीठ चाँचर
मेरे कन्धे पर रख दी गयी है
और मेरे कन्धे एकबारगी भारी हो उठे हैं।
मैं उस दिन समझ पाया था कि
ज़िन्दगी का बोझ मौत के मुक़ाबले हलक़ा होता है।

मेरे मन में तभी आयी थी
एक विफल जीवन की बात।
अपने देश और अपने काल की बात।
मेरा मन हो उठा था बेचैन
मैं सँजोये हुए था अपनी कलाई घड़ी में
अपने देश का समय।

मैं परदेसी
इस शहर के लिए
नया।

मेरी ओर बहती चली आ रही थीं
दिलासा भरी बातें
और आगे बढ़े हाथ
लेकिन इनमें से एक भी हाथ थाम नहीं पाया।

अचानक न जाने तुम कहाँ से आ गयी
और मेरा हाथ थाम लिया
चुपचाप।

कुछ कहे बिना
तुमने किस तरह
शोक में डूबी मेरी उस रात को सहारा दिया

तुम भले ही भूल जाओ
मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा।