रेगिस्तान / नरेश अग्रवाल
मैं बढ़ रहा था
रेगिसतान के टीलों की तरफ
एक बेहद मुश्किल यात्रा में -
चारों ओर आग ही आग जल रही थी
शायद बहुत भूखी होंगी यहॉं आत्माएं
वे मेरा मांस-खून सब रेत पर चने की तरह
भूनकर खा जाना चाहती थी
मैं बार-बार अपने शरीर पर पसीना छिडक़ता
और किसी तरह से अपना बचाव करता
मैं सूखता जा रहा था कपड़ों की तरह
और दूर-दूर तक पानी नहीं था प्यास बुझाने को
मुझे जोरों की भूख लग रही थी और
वहॉं रोटी नहीं थी न ही इसे पकाने वाले हाथ
उधर सूरज रोटी का रूप धरकर
बादल पानी की तरह
मेरी भूख-प्यास और ज्यादा बढ़ा रहा था
हवाएं तेज हो गयी थीं
ऑंधियॉं चल रही थीं और इस आग की राख
उड़- उडक़र चारों तरफ फैल रही थी
जो देखते- देखते ऊँचे- ऊँचे ढेरों
में तब्दील हो गयी ।
मैं समझ गया यह एक अशुभ जगह है
थोड़े से स्पर्श से धॅंसती रेत
आश्रय नहीं दे सकेगी मुझे
यहॉं जीना लगभग असंभव है
मैं वापस नीचे की ओर बढऩे लगा
अपने छोड़ आये पॉंवों के निशान के सहारे
सूरज भी डूबने लगा था पीछे की तरफ
अपने नियमित पथ पर
अचानक मेरी नजर पड़ी
बहुत सारी बबूल की झाडिय़ों पर
जिन्हे मजे से खा रहे थे दो-तीन ऊँट
लोगों के घर लौटने की !