रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर / शमशेर बहादुर सिंह
'अरुणा' और 'एम.ए. सिद्दीकी' को समर्पित: [यह संगीत यों तो योरपीय था, मगर जिस तरह इसका चित्र मेरी भावनाओं में उभरता गया, मुझे लगा कि जैसे किसी अरबी-रूमानी इतिहास के हीरो और हीरोइन अपने घुटते आवेश, मर्म से जलते उच्छ्वास च्छ्वास और कभी दर्दनाक फरियादों के क्षण, कभी आँसुओं-भरे मौन को मूर्त कर रहे हैं। उसी संगीत से मिलती-जुलती शैली में उसी भावुक प्रभाव को शब्दों से बाँधने का यह कुछ प्रयास है। - श.]
मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
शबनम की रातों में
तारों की टूटती
गर्म
गर्म
शमशीर-सी -
तेरी आवाज
खाबों में घूमती-झूमती
आहों की एक तसवीर सी
सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
खोई हुई
रोई हुई
एक तकदीर-सी
परदों में - जल के - शान्त
झिलमिल
झिलमिल
कमलदल।
रात की हँसी है तेरे गले में,
सीने में,
बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
साँसों में, लहरीली अलकों में :
आयी तू, ओ किसकी!
फिर मुसकरायी तू
नींद में - खामोश... वस्ल।
शुरू है आखिरी पीर।
सलाम!...
मेरे दर्द से हमकलाम
न हो!
जा, अब सो,
न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
न रो !
जो कुछ है
जो कुछ है
खो!
खो!
खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
- जा!
- जा!
- जा! - सो!...
× ×
बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
तू मेरी!...
आमीन!
आमीन!
आमीन!
[1943]