रेत और लहर की अनुपस्थिति के दरम्यान / नीलोत्पल
रेत और लहर की अनुपस्थिति के दरम्यान
जब मैंने तुम्हारी तरह बनने के बारे में सोचा
मुझे कई चींटियों ने काटा
हालांकि ऐसा सोचना व्यर्थ नहीं था
शुरुआत ऐसी ही थी
मैंने पानी के भीतर झांका
सोचा बह लूं पानी की तरह
लेकिन वह तो सीमाहीन था
जिधर भी गया
दिखे अपने ही डूबते बंदरगाह, स्याह नावं
जिनके पास गया
उनके पास उतने मुंह थे, कुल्हाड़ियां
चाक़ू और प्रतिस्पर्धा थी
उन्होंने कहा-
चीज़ों को इस तरह छीलों
ख़ुद को ऐेसे रगड़ो, वैसे बनाओ
उंगलियां इस तरह डुबाओ कि
शहद दिखे नहीं
पहाड़ के नज़दीक मत जाओ
पेड़ों से उतारो मत अपनी पतंगें
तुम उधर मत जाओ
जहां रंगों और शब्दों का पसीना
चेटता है तुम्हारे बदन से
मैं रुका रहा, सुनता रहा
लेकिन जब अपनी जेबें टटोलीं तो
उनमें कोई सच नहीं था
वहां जीवन में आए उतार-चढाव के
ख़ाली ब्यौरे थे
जो ऋतुएं आईं मेरे हिस्से में
उनकी धूल आंखों में थी
मैं लगातार दहक रहा था
आख़िरकार बन नहीं पाया स्वतःस्फूर्त
वह लहर जो किनारे तक आती
और मिट जाती
मैं वहीं कहीं था
रेत और लहर की अनुपस्थिति के दरम्यान
अपना ही अज्ञात परिणाम