रेत की एक अमूर्त छाप / अश्वनी शर्मा
रेत की एक अमूर्त्त छाप
किसने आंक दी है
मेरे बहुत अंदर तक
रेत का अनन्त विस्तार
फैला है
कोई खेजड़ी, कैर
या कहीं-कहीं आक
और
सेवण तथा बेर के
पीले पड़े झुरमुट
मुझमें सिमटे हैं
किसी विशाल ग्रंथ के
पॉकेटबुक
संस्करण से
कितनी बार
चाहा मैंने
मुंह घुमाकर
निकल जाऊं
लेकिन हर मोड़ पर
आ खड़ा होता है
एक विशाल टीला
जिस पर
लुढ़कता रहा था
मेरा बचपन
और
लोट-पोट होने के बाद
कितनी बार मां के चांटे
का स्वाद चखा
लेकिन
मुझे सम्मोहित करता रहा
वो विशाल टीला
जिसके समक्ष
बहुत बौना होता था
मेरा वजूद
फिर भी अपने छोटे-छोटे पैरों
से हर बार
नाप लेता था मैं
उसकी ऊंचाई
वापिस लोट-पोट होकर
नीचे पहुंच जाने के लिये
कितनी बार टीले पर
यूं ही बैठे-बैठै
उदास शामें गुजारी
डूबते सूरज के साथ
कितनी बार डूबा वो सूरज
बाहर नहीं
मेेेरे अंदर
लेकिन नहीं डूबा कभी भी ऐसे
कि न उगा हो
अगली सुबह
यूं ही कितने दिन या साल
बीत गये
डूबते-उगते
सूरज के साथ
हां याद है वो तारा
जो उग आता है
झुटपुटा होते ही
मेरा पक्का दोस्त
आज भी
ढूंढता हूं उसे
मैं ही छोड़ आया हूं उसे
छूट गया
मेरा एक हिस्साा
बतियाता है उससे
जो शायद बैठा है
उसी टीले पर आज भी
पहली बरसात की
खुशबू में मदहोश
मैं बनाता रहा
कितने घरौंदे
टूटते, जुड़ते, उड़ते
कई घरौंदे
साथ हो लिये मेरे
जिन्दगीभर के लिये
इन घरौंदांे में
टुकड़े-टुकडे़ जीता हुआ मैं
आज भी जीता हूं
उस पहले घरौंदे के साथ
जो अनगढ़-सा बनाया था
मैंने अपने नन्हे हाथों से
जिसके लिये मैं
फूट-फूट कर रोया था
जब नहीं रहा था वो
सुनसान दुपहरी में
जब बरस रही होती थी आग
आसमान से
मैं चुपचाप पीता रहा
वो सन्नाटा
जो आज पैठ गया है
कहीं अंदर तक
जब भी साथ होता है मेरे
मैं नहीं होता
बस गूंजता है यह सन्नाटा
आंधियों ने कितनी बार
गुम कर दी
पगडंडियां
रास्त भूला
मेरा बचपन
आज त
नहीं पकड़ पाया
सीधी राह
जीवन यात्रा के पड़ावों में
सुस्ताते हुए
हर बार पहुंच गया मैं
उसी टीले पर
चित्त लेटकर
निरभ्र आकाश को ताकते हुए
किसी दिन कोई
बदली आये
यह रहा अहसास मन में कभी-कभी
ताकता रहा
पर मैं वैसे ही
निरूद्देश्य
उस रेत के धूसर विस्तार पर
चित्त पड़ा
अनन्त तक फैला वो
नीला विस्तार
महसूस करता रहा
मेरे वजूद को एकाकार होते हुए
उस नीले और धूसर विस्तार के साथ
बहुत दूर निकल आया हूं
रेत के साये से
आज नहीं दिखता
वो सब जो कभी था
मेरी जिंदगी का हिस्सा
लेकिन कब कट पाया
उससे चाहे काट दी जाती हो
गर्भनाल पैदा होते ही
लेकिन कब छूट पाता है आदमी
गर्भनाल के संबंध से